क़मर सुरूर की पैदाइश 5 अगस्त 1975 को हुई। बचपन से ही इल्म की तलाश उनके लिए महज़ एक शौक़ नहीं, बल्कि इबादत का दर्जा रखती थी। उन्होंने मालिगांव से यूनानी तिब्ब (Eastern Medicine) में तालीम हासिल की और BUMS की डिग्री ली। इसके बाद नागपुर से D.N.M. की तकमील की और अहमदनगर से उर्दू अदब में M.A. किया।
इल्म के इन तीनों समंदरों में गोता लगाने के बाद, क़मर सुरूर के क़लम ने ऐसा जादू बख़्शा कि उनकी तख़लीक़ात में तिब्ब की शिफ़ा का असर भी झलकता है और शायरी का नूर भी चमक उठता है।
अमली ज़िंदगी और अदबी सफ़र
क़मर सुरूर पेशे से एक तबीब हैं — लेकिन उनकी रूह एक शायरा की है।
उन्होंने उर्दू अदब को ज़िंदगी का मक़सद बना लिया। 2017 में क़ौमी काउंसिल बराए फ़रोग़-ए-उर्दू ज़बान, नई दिल्ली ने उन्हें अदब-ए-अतफ़ाल (Children’s Literature) के लिए जज के तौर पर चुना — जो उनकी अदबी समझ और ज़ेहनी गहराई की गवाही देता है।
उनका पहला मजमूआ-ए-क़लाम “Aur Sitara Ban Ja” उर्दू अदब में एक नायाब तोहफ़ा है — जिसमें एहसास, हुस्न और सोच की परिपक्वता झलकती है।
उनकी शायरी में नर्म जज़्बात हैं, हक़ की आवाज़ है, और एक ख़ामोश बग़ावत की ख़ुशबू भी।
ख़िदमात और कारनामे
डॉ. क़मर सुरूर ने अहमदनगर और महाराष्ट्र के अलग-अलग स्कूलों में उर्दू ज़बान की तालीम और तर्ज़ुमानी के लिए जो कोशिशें की हैं, वो क़ाबिले-तारीफ़ हैं।
वो न सिर्फ़ मुस्लिम बल्कि गैर-मुस्लिम तबक़ात में भी उर्दू की तालीम देती हैं — और रेडियो से लेकर ग़ज़ल-गो तक, सबको उर्दू की नज़ाकत सिखाती हैं।
उन्होंने शिवाजी महाराज पर लिखी गई मराठी किताबों का उर्दू में तर्ज़ुमा किया — और उर्दू किताबों को मराठी व हिंदी में पेश कर के ज़बानों के दरमियान एक पुल बना दिया।
उनके इस काम ने साबित किया कि ज़बान महज़ लफ़्ज़ों का लिबास नहीं, बल्कि दिलों को जोड़ने वाली रूह है।
शायरी और ख़यालात
क़मर सुरूर की शायरी में एहसास की शफ़्फ़ाफ़ी और सोच की बुलंदी दोनों हैं।
उनका मशहूर शेर उनकी शख़्सियत की झलक है —
“ऐ सियासत, तेरा मयार कितना ऊँचा,
लब की जुम्बिश से भी एहसास को डर लगता है।”
इस एक शेर में उन्होंने सियासत के नक़ाबपोश चेहरों को आईना दिखा दिया।
उनकी नज़्में और ग़ज़लें ज़िंदगी की सच्चाइयों से टकराती हैं, मगर नर्मी और तहज़ीब के दायरे में।
अहम ओहदे और अदबी सरगर्मियाँ
क़मर सुरूर कई अहम अदबी और तालीमी ओहदों पर फ़राइज़ अंजाम दे रही हैं —
मदिरा (Editor): साप्ताहिक “उर्दू मखदूम”, अहमदनगर
सद्र (President): बज़्म-ए-ख़वातीन, अहमदनगर
ज्वाइंट सेक्रेटरी: अहमदनगर ज़िला उर्दू साहित्य परिषद
ज्वाइंट सेक्रेटरी: ग़ज़ल ग्रुप, अहमदनगर
उनके तशद्दुद और तवाज़ुन के साथ अदबी सरगर्मियाँ इस बात का सबूत हैं कि वो उर्दू ज़बान को एक तहरीक की शक्ल देना चाहती हैं।
एहतराम और एवार्ड्स
डॉ. क़मर सुरूर को उनकी ख़िदमात के लिए कई एवार्ड्स और एज़ाज़ात से नवाज़ा गया —
समाज रतन पुरस्कार (2003)
समाज सेविका पुरस्कार (2005)
समाज रतन पुरस्कार (2006) — कोलकाता उर्दू अकादमी
मजरूह एवार्ड (2007)
भूषण प्रशस्ति पुरस्कार (2009)
सावित्री बाई फुले एवार्ड (2012)
रिफ़अत परवाज़ एवार्ड (2017)
परवीन शाकिर एवार्ड (2017)
हर एवार्ड उनकी लगन, इल्म और अदबी ख़िदमात का इकरार है।
क़मर सुरूर की शायरी,ग़ज़लें,नज़्मे
ग़ज़ल-1
आज की शाम ठहर जाओ ग़ज़ल होने तक
इल्तिजा है कि न घर जाओ ग़ज़ल होने तक
तुम गुल-ए-रा'ना हो ख़ुश-रंग हो ख़ुश-बख़्त भी हो
ख़ुशबू बन बन के बिखर जाओ ग़ज़ल होने तक
सोए एहसास की लहरों में मचा दो हलचल
आँख से दिल में उतर जाओ ग़ज़ल होने तक
फिर ख़ुदा जाने ये आईना रहे या न रहे
आज मौक़ा है सँवर जाओ ग़ज़ल होने तक
अपने हर ख़्वाब को काग़ज़ पे मुकम्मल कर लूँ
मेरी आँखों में ठहर जाओ ग़ज़ल होने तक
किस तरह तुम को 'सुरूर' आज क़लम-बंद करे
मुझ को बतला के हुनर जाओ ग़ज़ल होने तक
ग़ज़ल-2
अपने साए से भी डरती है तुझे क्या मालूम
ज़िंदगी अक्स बदलती है तुझे क्या मालूम
दिन तो सूरज है किसी तरह से ढल जाता है
रात आँखों में ठहरती है तुझे क्या मालूम
मेरे चेहरे पे लिखे हर्फ़ तू पढ़ लेता है
जो मेरे दिल पे गुज़रती है तुझे क्या मालूम
ये तिरे नाम से मंसूब भी हो सकती है
साँस रह रह के अटकती है तुझे क्या मालूम
तेरी धुन है मिरी पाज़ेब की झंकारों में
अब तो चूड़ी भी खनकती है तुझे क्या मालूम
तू ने जाते हुए जिस शाम को छोड़ा था यहाँ
वो सर-ए-शाम सँवरती है तुझे क्या मालूम
जाने किस सम्त से आ जाए तिरी याद 'क़मर'
ज़िंदगी रास्ता तकती है तुझे क्या मालूम
ग़ज़ल-3
तेरे नाम हैं रौशन रातें अपने नाम अंधेरे हैं
सारी ख़ुशियाँ अब तेरी हैं जो ग़म हैं वो मेरे हैं
झूट-मूट के इन ख़्वाबों से आँखों को बर्बाद न कर
ख़्वाब को ख़्वाब ही रहने दे बस मेरे हैं न तेरे हैं
मक्र-ओ-रिया की ये दुनिया भी देखो बीन बजाती है
उन राहों पे तुम मत जाना जिन राहों पे सपेरे हैं
कोई तो है जिस से मिलने की आस अभी तक बाक़ी है
कौन है इस तपते सहरा में किन यादों के बसेरे हैं
बात बात पर ज़ुल्मत-ए-शब का मातम करना ठीक नहीं
उन आँखों की बातें करना जिन आँखों में सवेरे हैं
ग़ज़ल-4
जम गई आँख में ता'बीर पिघलती ही नहीं
चाँदनी रात मिरे ख़्वाब में ढलती ही नहीं
पहले यूँ था मिरी आँखें नहीं पथराई थीं
अब तो आँसू की कोई बूँद निकलती ही नहीं
ख़ाली आँखों से तका करती हूँ आँगन अपना
दोपहर है जो तिरी याद की ढलती ही नहीं
जाने किस ख़ौफ़ से सहमी सी है बच्ची मेरी
अब खिलौने भी दिखाओ तो मचलती ही नहीं
इश्क़ का रोग लगा बैठे थे इक रोज़ 'सुरूर'
ज़िंदगी अब तो सँभाले से सँभलती ही नहीं
तब्सरा
क़मर सुरूर की शायरी एक ऐसा रौशन दरीचा है, जहाँ अल्फ़ाज़ महज़ बयान का ज़रिया नहीं, बल्कि एहसास की ज़ुबान बन जाते हैं। उनकी शायरी में ज़िंदगी की सच्चाइयाँ भी हैं और रूहानी लम्हों की ख़ुशबू भी। वो अपने अशआर में इश्क़, इंसानियत और तजुर्बे का ऐसा संगम पेश करते हैं जो दिल की गहराइयों तक उतर जाता है।
क़मर सुरूर का अंदाज़-ए-बयाँ न तो हद से ज़्यादा तज़कियाती है और न ही सर्फ़ ज़ाहिरी हुस्न का मुशाहिदा — बल्कि उनकी शायरी में एक ऐसा तवाज़ुन नज़र आता है जहाँ मआनी (मतलब), जज़्बात (भावनाएँ) और लफ़्ज़ों की नज़ाकत एक दूसरे को मुकम्मल करते हैं।
उनके कलाम में तिब्ब की तरह एक शिफ़ाई लहजा भी है — जो ज़ख़्म नहीं देता, बल्कि मरहम बनता है। हर मिसरा, हर शेर एक दवा की तरह है जो दिल के दर्द को बयान करते हुए उसे तसल्ली भी देता है।
क़मर सुरूर ने उर्दू शायरी की उस रवायत को आगे बढ़ाया है जिसमें “सोज़” (दर्द), “नूर” (रोशनी) और “फ़िक्र” (चिंतन) तीनों एक साथ चलती हैं। उनके अशआर में अल्फ़ाज़ नहीं, दुआएँ बसती हैं; और यही बात उन्हें दूसरों से जुदा करती है।
असल में, क़मर सुरूर की शायरी उर्दू अदब का वो हिस्सा है जहाँ इल्म और एहसास एक ही सफ़े पर मिलते हैं — और वहीं से शायरी की अस्ल ख़ूबसूरती जन्म लेती है।ये भी पढ़ें
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