(एक अदबी तज़किरा और शायरी का जाम-ए-सफ़ा)
✍️ तहरीर: Z S Razzaqi
पैदाइश और ख़ानदानी माहौल
(एक अदबी तज़किरा और शायरी का जाम-ए-सफ़ा)
✍️ तहरीर: Z S Razzaqi
पैदाइश और ख़ानदानी माहौल
ख़ुमार बाराबंकवी का असली नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था। उनकी पैदाइश 15 सितंबर 1919 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के पीरबटावन मोहल्ले में हुई। उनका घराना इल्म-ओ-अदब का हामिल था। उनके वालिद डॉ. गुलाम हैदर "बहार" नज़्म और मरसिया निगार थे। उनके चाचा क़रार बाराबंकवी मुशायरों में एक बुलंद नाम थे और उन्हीं की इस्लाह (मार्गदर्शन) ने ख़ुमार की तख़्लीक़ी (creative) ज़हनियत को दिशा दी। छोटे भाई काज़िम हैदर "निगार " भी शायर थे मगर कमसिनी में ही दुनिया से रुख़्सत हो गए।
यह अदबी माहौल ख़ुमार को बचपन से ही शेर-ओ-शायरी की तरफ़ खींच लाया। उन्होंने महज़ किशोर अवस्था में ग़ज़ल कहनी शुरू कर दी थी और जल्द ही उनकी शायरी बाराबंकी के अदबी हलक़ों में चर्चा का विषय बन गई।
ख़ुमार बाराबंकवी का असली नाम मोहम्मद हैदर ख़ान था। उनकी पैदाइश 15 सितंबर 1919 को उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के पीरबटावन मोहल्ले में हुई। उनका घराना इल्म-ओ-अदब का हामिल था। उनके वालिद डॉ. गुलाम हैदर "बहार" नज़्म और मरसिया निगार थे। उनके चाचा क़रार बाराबंकवी मुशायरों में एक बुलंद नाम थे और उन्हीं की इस्लाह (मार्गदर्शन) ने ख़ुमार की तख़्लीक़ी (creative) ज़हनियत को दिशा दी। छोटे भाई काज़िम हैदर "निगार " भी शायर थे मगर कमसिनी में ही दुनिया से रुख़्सत हो गए।
यह अदबी माहौल ख़ुमार को बचपन से ही शेर-ओ-शायरी की तरफ़ खींच लाया। उन्होंने महज़ किशोर अवस्था में ग़ज़ल कहनी शुरू कर दी थी और जल्द ही उनकी शायरी बाराबंकी के अदबी हलक़ों में चर्चा का विषय बन गई।
तालीम और इश्क़-ओ-इन्हिराफ़
शुरुआती तालीम गवर्नमेंट कॉलेज बाराबंकी से हासिल की, जहाँ से उन्होंने हाई स्कूल आला दर्जे में पास किया। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए वह लखनऊ पहुँचे। लखनऊ का अदबी माहौल और मुशायरों की रौनक़ ने उनके ज़ेहन पर गहरा असर डाला। वहीं इश्क़ का एक वाक़िया भी उनकी ज़िंदगी में आया जिसने उन्हें किताबों से ज़्यादा अशआर का दीवाना बना दिया। नतीजतन, उन्होंने B.A. की पढ़ाई अधूरी छोड़कर पूरी तरह शायरी को समर्पित कर दिया।
अदबी सफ़र और उर्दू शायरी में पहचान
ख़ुमार बाराबंकवी का तख़ल्लुस "ख़ुमार" था, जिसका मतलब है रूहानी नशा, इश्क़ का असर, और मयकशी की हल्की मदहोशी। यही नशा उनकी ग़ज़लों में छलकता है। उन्हें "शहंशाह-ए-ग़ज़ल" और "आबरू-ए-ग़ज़ल" जैसे ख़िताबात से नवाज़ा गया।
उनकी ग़ज़लों की सबसे बड़ी ख़ासियत उनका लहजा था – न बहुत मुश्किल, न बहुत सादा। एक नर्म-ओ-गर्म रवानी, गहरी इश्क़िया कैफ़ियत और ज़बान की नफ़ासत उनकी शायरी को ख़ास बनाती थी।
फ़िल्मी दुनिया और ग़ज़ल का सफ़र
हालाँकि उनका रुझान मुशायरों और अदबी हलक़ों की तरफ़ ज़्यादा था, मगर उन्होंने कुछ वक़्त हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में भी गीत लिखे।
उन्होंने "शाहजहां", "दिल की बस्ती", "रूप लेखा", "हलचल", "रुख़साना", "महफ़िल", "क़ातिल" जैसी फ़िल्मों में नग़्मे लिखे। संगीतकार नौशाद ने उन्हें फ़िल्मी गीतों में लाने की कोशिश की, मगर ख़ुमार को यह मैदान रास नहीं आया। उनकी नफ़रत का कारण था – फिल्मों में शायरी का गिरता हुआ स्तर। लिहाज़ा उन्होंने जल्द ही बॉलीवुड से किनारा कर लिया और अपने अस्ल शोअला-ए-फ़न यानी मुशायरों और अदब की दुनिया में लौट आए।
अदबी मज़ामीन और किताबें
ख़ुमार बाराबंकवी की शायरी कई मज़मूनात और क़लाम की शक्ल में महफ़ूज़ हुई। उनकी प्रकाशित किताबें:
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हदीस-ए-दीगरां
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आतिश-ए-तर
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रक्स-ए-माई
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शब-ए-ताब
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आहंग-ए-ख़ुमार
इन किताबों में उनकी ग़ज़लों का वो रंग है, जो आज भी उर्दू अदब की शान समझा जाता है।
अवार्ड और इज़्ज़त-अफ़ज़ाई
उनके फ़न और अदबी खिदमात को मुल्क-ओ-ग़ैर मुल्क में सराहा गया। उन्हें कई एहतिरामी अवार्ड मिले:
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उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी अवार्ड
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जिगर मुरादाबादी उर्दू अवार्ड
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उर्दू सेंटर कीनिया और अकादमी नवाए मीर उस्मानिया, हैदराबाद
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मल्टी-कल्चरल सेंटर, ओंटारियो (कनाडा) अवार्ड
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अदबी संगम न्यूयॉर्क और दीन दयाल जालान सम्मान, वाराणसी
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पाकिस्तान का क़मर जलालवी अवार्ड
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दुबई में 1992 में ख़ास तौर पर जश्न-ए-ख़ुमार का आयोजन
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1993 में बाराबंकी ज़िले में जश्न-ए-ख़ुमार, जहाँ राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने उन्हें एक लाख रुपये और प्रशस्ति पत्र से नवाज़ा।
खुमार बाराबंकवी साहब कुछ यादगार ग़ज़लें
1-ग़ज़ल
2-ग़ज़ल
3-ग़ज़ल
4-ग़ज़ल
ताब्सिरा-ए-ख़ुमार बाराबंकवी
उर्दू शायरी की महफ़िल में अगर कोई नाम सुरूर-ओ-ख़ुमार की तरह गूंजता है तो वह है ख़ुमार बाराबंकवी। उनकी शायरी का मिज़ाज ऐसा है मानो लफ़्ज़ लफ़्ज़ से इत्र की ख़ुशबू उठती हो और ग़ज़ल का हर शेर एक प्याला-ए-जाम हो, जिसमें इश्क़, रूहानियत और तन्हाई का ख़ुमार घुला हुआ है।
ख़ुमार साहब की ग़ज़लें महज़ इश्क़ की दास्तान नहीं, बल्कि इंसानी जज़्बात की पूरी कायनात हैं। उनकी तख़्लीक़ में जहाँ इश्क़ का सरूर है, वहीं जुदाई का सोज़ भी है; जहाँ मयकशी का रंग है, वहीं तन्हाई की शिद्दत भी है। यही वजह है कि उनकी शायरी सुनने वाले के दिल में उतर जाती है और देर तक असर छोड़ती है।
उनकी ग़ज़लों की ज़बान नाज़ुक, रवानी से भरपूर और आम आदमी के दिल की तरजुमान है। उन्होंने उर्दू शायरी को न सिर्फ़ नज़ाकत दी बल्कि उसे एक नया लहजा भी अता किया। वो लहजा जिसमें न सख़्ती है, न तकल्लुफ़, बल्कि सिर्फ़ सच्चाई और एहसास की नरमी है।
फ़िल्मी दुनिया से जुड़ने के बावजूद, ख़ुमार साहब ने अपनी असल पहचान मुशायरों में क़ायम की। वो जानते थे कि सच्ची शायरी की रूह सिनेमा की चकाचौंध से कहीं आगे है। इसीलिए उन्होंने अपने अशआर को मुशायरों और अदबी हलक़ों तक महदूद रखा और वहीं से अपनी शोहरत की इमारत बनाई।
अगर जिगर मुरादाबादी ने इश्क़ की शायरी को रोशन किया और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने उसे इंक़लाब का पैग़ाम दिया, तो ख़ुमार बाराबंकवी ने उसे दिल की सरगोशियों और रूह की मस्ती का तर्जुमा बनाया।
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