मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़: एक बेमिसाल शायर और क़सीदा-निगार

मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ (1790–1854) उर्दू अदब के उन चमकते सितारों में से एक हैं, जिन्होंने अपनी शायरी और क़सीदों से मुग़ल दरबार में न केवल शोहरत हासिल की, बल्कि हिंदुस्तानी शायरी को एक नई पहचान भी दी। उन्हें उनके उस्तादाना अंदाज़, ज़बान की सादगी और फ़िक्री गहराई के लिए आज भी याद किया जाता है। उन्होंने अपनी शायरी में मोहब्बत, इख़लाक़, और दीन को बड़े ख़ूबसूरत अंदाज़ में पिरोया।


जन्म और प्रारंभिक जीवन

शेख़ मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ का जन्म 1790 में दिल्ली में हुआ। उनके वालिद, शेख़ मोहम्मद रमज़ान, बेहद सादा हालात में रहते थे। घर की तंगी और मुश्किल हालात के बावजूद ज़ौक़ ने बचपन में ही अपने अंदर अदब और शायरी की लगन पैदा कर ली।

बचपन में चेचक जैसी ख़तरनाक बीमारी का सामना करने के बावजूद ज़ौक़ ने हिम्मत नहीं हारी। उनकी तालीम की शुरुआत मकतब (दीन-ए-मदरसा) से हुई, जिसे हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल चलाते थे। हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल, जो ख़ुद भी शायर थे, ने ज़ौक़ की सलाहियत को पहचाना और उन्हें शायरी का ज़ौक़ दिया। उन्होंने ज़ौक़ को "ज़ौक़" तख़ल्लुस भी दिया, जो आगे चलकर उनकी पहचान बन गया।


शायरी का सफ़र और दरबारी ज़िंदगी

ज़ौक़ का शायरी का सफ़र तब तेज़ हुआ जब उन्होंने दिल्ली के मक़बूल उस्ताद शाह नसीर को अपनी ग़ज़लें दिखानी शुरू कीं। शाह नसीर ने ज़ौक़ की सलाहियत को सराहा और उन्हें अपने शागिर्दों में शामिल किया। धीरे-धीरे ज़ौक़ दिल्ली के मुशायरों में अपनी जगह बनाने लगे। उनकी सादगी और लफ़्ज़ों के सही इस्तेमाल ने उन्हें मुशायरों में मक़बूल बना दिया।

हालांकि, उनकी कामयाबी से उनके उस्ताद शाह नसीर नाराज़ हो गए और उन्हें अपने शागिर्दों की फेहरिस्त से निकाल दिया। इसके बावजूद ज़ौक़ ने अपनी मेहनत और लगन से शायरी को जारी रखा।

उनके दोस्त, मीर काज़िम हुसैन बेक़रार, जो वली-अहद (क्राउन प्रिंस) बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद थे, ने उन्हें शाही दरबार में दाख़िल होने का मौक़ा दिया। जब बहादुर शाह ज़फ़र तख़्तनशीं हुए, तो उन्होंने ज़ौक़ को अपने शायरी के उस्ताद (राज-कवि) के तौर पर मुक़र्रर किया। ज़ौक़ की तनख़्वाह चार रुपए से बढ़ाकर सौ रुपए कर दी गई। इस तरह, ज़ौक़ ने अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा मुग़ल दरबार में बिताया और आख़िरी दम तक वहीं रहे।


शायरी का अंदाज़ और ख़ासियत

ज़ौक़ का नाम सबसे ज़्यादा क़सीदों के लिए मशहूर है। उनके क़सीदों में नफ़ासत, ज़बान की सादगी और मुश्किल बहर में शायरी करने की महारत साफ़ नज़र आती है। उनकी ग़ज़लें आम ज़िंदगी के मामूली लफ़्ज़ों और महावरों का बेहतरीन इस्तेमाल करती हैं।

ज़ौक़ का उर्दू शायरी पर गहरा असर पड़ा। उनकी शायरी का एक बड़ा हिस्सा धार्मिक और नैतिक मसलों पर आधारित था। यह उनकी ग़ज़लों में एक "वाइज़ाना" (उपदेशात्मक) अंदाज़ पैदा करता था, जो उन्हें बाक़ी शायरों से जुदा करता है।



ज़ौक़ और ग़ालिब की रंजिश

ज़ौक़ और मिर्ज़ा ग़ालिब की रंजिश उर्दू अदब में बहुत मशहूर है। उस दौर में ज़ौक़ ग़ालिब से ज़्यादा मक़बूल थे, क्योंकि उस समय शायरी की क़द्र सिर्फ़ लफ़्ज़ों, जुमलों और महावरों की ख़ूबसूरती पर की जाती थी। ग़ालिब के उलट, ज़ौक़ ने शायरी में सरल और सादा ज़बान का इस्तेमाल किया।


विरासत और मीरास

1857 की ग़दर में ज़ौक़ का बहुत सा शायरी का काम खो गया। बावजूद इसके, मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने उनके शागिर्दों की मदद से उनकी शायरी को संकलित किया। इस संग्रह में लगभग बारह सौ शेर और पंद्रह क़सीदे शामिल हैं।

ज़ौक़ ने ग़ज़ल, क़सीदा, और मुखम्मस जैसी विधाओं में अद्वितीय योगदान दिया। उनकी भाषा सादी, लेकिन दिलकश थी। ज़ौक़ के अशआर आज भी उर्दू अदब में एक ख़ास मक़ाम रखते हैं।



आख़िरी दिन 

ज़ौक़ ने नवंबर 1854 में इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कहा। उनकी क़ब्र आज भी दिल्ली के पहाड़गंज इलाक़े की तंग गलियों में मौजूद है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर उनकी मज़ार की मरम्मत तो हुई, लेकिन उनके घर का पता आज तक मालूम नहीं हो सका।

इब्राहिम ज़ोक़ साहब की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 


1-ग़ज़ल 

वक़्त-ए-पीरी शबाब की बातें

ऐसी हैं जैसे ख़्वाब की बातें


फिर मुझे ले चला उधर देखो

दिल-ए-ख़ाना-ख़राब की बातें


वाइज़ा छोड़ ज़िक्र-ए-नेमत-ए-ख़ुल्द

कह शराब-ओ-कबाब की बातें


मह-जबीं याद हैं कि भूल गए

वो शब-ए-माहताब की बातें


हर्फ़ आया जो आबरू पे मिरी

हैं ये चश्म-ए-पुर-आब की बातें


सुनते हैं उस को छेड़ छेड़ के हम

किस मज़े से इताब की बातें


जाम-ए-मय मुँह से तू लगा अपने

छोड़ शर्म ओ हिजाब की बातें


मुझ को रुस्वा करेंगी ख़ूब ऐ दिल

ये तिरी इज़्तिराब की बातें


जाओ होता है और भी ख़फ़क़ाँ

सुन के नासेह जनाब की बातें


क़िस्सा-ए-ज़ुल्फ़-ए-यार दिल के लिए

हैं अजब पेच-ओ-ताब की बातें


ज़िक्र क्या जोश-ए-इश्क़ में ऐ 'ज़ौक़'

हम से हों सब्र ओ ताब की बातें



2-ग़ज़ल 

हाथ सीने पे मिरे रख के किधर देखते हो

इक नज़र दिल से इधर देख लो गर देखते हो


है दम-ए-बाज़-पसीं देख लो गर देखते हो

आईना मुँह पे मिरे रख के किधर देखते हो


ना-तवानी का मिरी मुझ से न पूछो अहवाल

हो मुझे देखते या अपनी कमर देखते हो


पर-ए-परवाना पड़े हैं शजर-ए-शम्अ के गिर्द

बर्ग-रेज़ी-ए-मोहब्बत का समर देखते हो


बेद-ए-मजनूँ को हो जब देखते ऐ अहल-ए-नज़र

किसी मजनूँ को भी आशुफ़्ता-बसर देखते हो


शौक़-ए-दीदार मिरी नाश पे आ कर बोला

किस की हो देखते राह और किधर देखते हो


लज़्ज़त-ए-नावक-ए-ग़म 'ज़ौक़' से हो पूछते क्या

लब पड़े चाटते हैं ज़ख़्म-ए-जिगर देखते हो



3-ग़ज़ल 

हुए क्यूँ उस पे आशिक़ हम अभी से

लगाया जी को नाहक़ ग़म अभी से


दिला रब्त उस से रखना कम अभी से

जता देते हैं तुझ को हम अभी से


तिरे बीमार-ए-ग़म के हैं जो ग़म-ख़्वार

बरसता उन पे है मातम अभी से


ग़ज़ब आया हिलें गर उस की मिज़्गाँ

सफ़-ए-उश्शाक़ है बरहम अभी से


अगरचे देर है जाने में तेरे

नहीं पर अपने दम में दम अभी से


भिगो रहवेगा गिर्या जैब ओ दामन

रहे है आस्तीं पुर-नम अभी से


तुम्हारा मुझ को पास-ए-आबरू था

वगरना अश्क जाते थम अभी से


लगे सीसा पिलाने मुझ को आँसू

कि हो बुनियाद-ए-ग़म मोहकम अभी से


कहा जाने को किस ने मेंह खुले पर

कि छाया दिल पे अब्र-ए-ग़म अभी से


निकलते ही दम उठवाते हैं मुझ को

हुए बे-ज़ार यूँ हमदम अभी से


अभी दिल पर जराहत सौ न दो सौ

धरा है दोस्तो मरहम अभी से


किया है वादा-ए-दीदार किस ने

कि है मुश्ताक़ इक आलम अभी से


मरा जाना मुझे ग़ैरों ने ऐ 'ज़ौक़'

कि फिरते हैं ख़ुश-ओ-ख़ुर्रम अभी से



4-ग़ज़ल 

हम हैं और शुग़्ल-ए-इश्क़-बाज़ी है

क्या हक़ीक़ी है क्या मजाज़ी है


दुख़्तर-ए-रज़ निकल के मीना से

करती क्या क्या ज़बाँ-दराज़ी है


ख़त को क्या देखते हो आइने में

हुस्न की ये अदा-तराज़ी है


हिन्दू-ए-चश्म ताक़-ए-अबरू में

क्या बना आन कर नमाज़ी है


नज़्र दें नफ़्स-कुश को दुनिया-दार

वाह क्या तेरी बे-नियाज़ी है


बुत-ए-तन्नाज़ हम से हो ना-साज़

कारसाज़ों की कारसाज़ी है


सच कहा है किसी ने ये ऐ 'ज़ौक़'

माल-ए-मूज़ी नसीब-ए-ग़ाज़ी है



कुछ चुनिंदा अशआर 

मरज़-ए-इश्क़ जिसे हो उसे क्या याद रहे
न दवा याद रहे और न दुआ याद रहे
अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएँगे
मर के भी चैन न पाया तो किधर जाएँगे
ऐ 'ज़ौक़' तकल्लुफ़ में है तकलीफ़ सरासर
आराम में है वो जो तकल्लुफ़ नहीं करता
मालूम जो होता हमें अंजाम-ए-मोहब्बत
लेते न कभी भूल के हम नाम-ए-मोहब्बत
लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले
अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले


तब्सरा:-

शेख मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़, जिन्हें उर्दू अदब में उनकी सादगी, रवानी और सलीक़े के लिए याद किया जाता है, 1790 में दिल्ली में पैदा हुए। उनकी परवरिश एक साधारण और मुफलिसी भरे माहौल में हुई। वालिद शेख मोहम्मद रमज़ान के पास अपने बेटे की तालीम-ओ-तरबियत के लिए ज़्यादा वसाइल नहीं थे, मगर यह उनकी फितरी सलाहियत थी जिसने उन्हें उर्दू शायरी की बुलंदियों तक पहुंचाया।

ज़ौक़ की शुरुआती तालीम एक मामूली मक़तब में हुई, जहां उन्होंने हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल से इल्म हासिल किया। यह वही उस्ताद थे जिन्होंने उनकी अदबी सलाहियत को तराशा। हाफ़िज़ ग़ुलाम रसूल खुद एक शायर थे और "शौक़" तखल्लुस रखते थे। उनकी रहनुमाई ने ज़ौक़ के अदबी सफर की बुनियाद रखी। जल्दी ही ज़ौक़ शाह नसीर जैसे नामवर शायर के शागिर्द बन गए। लेकिन उनकी सलाहियत इतनी बुलंद थी कि उनके उस्ताद भी उनसे रश्क करने लगे। शाह नसीर ने उन्हें अपने हलक़ा-ए-अरबाब से निकाल दिया, मगर यह उनके सफर का अंत नहीं था। ज़ौक़ ने अपनी मेहनत से अदब की दुनिया में वो मक़ाम हासिल किया जो कम ही लोगों के हिस्से आता है।

ज़ौक़ को उनकी काबिलियत का सबसे बड़ा इनाम तब मिला जब उन्हें बहादुर शाह ज़फ़र के उस्ताद के तौर पर शाही दरबार से जोड़ा गया। महज़ उन्नीस साल की उम्र में उन्हें शाही दरबार के शायर-ए-मलिकाना का ओहदा मिला और "ख़ाकानी-ए-हिंद" का खिताब दिया गया। यह उनकी सलाहियत और काबिलियत का सबूत था।

ज़ौक़ की शायरी की खास बात उनकी ज़बान की सादगी और रवानी है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों और क़सीदों में आम इंसानी जज़्बात, दीनी और अख़लाक़ी मसायल को जगह दी। उनकी शायरी में वह गहराई भले ही न हो जो मीर और ग़ालिब में मिलती है, लेकिन उनकी रवानी ने उन्हें अवाम का चहेता बनाया। उनके क़सीदे, जो मुश्किल से मुश्किल बहर में लिखे गए, उर्दू अदब में अपनी मिसाल आप हैं।

ज़ौक़ और ग़ालिब की अदबी रक़ाबत उर्दू अदब की तारीख़ का दिलचस्प हिस्सा है। जहां ग़ालिब अपने गहरे मफ़हूम और तसव्वुफ़ की वजह से पहचाने गए, वहीं ज़ौक़ की सादगी और रवानी ने उन्हें खास मुकाम दिया। दोनों के फन में जमीन-आसमान का फर्क होने के बावजूद, दोनों ने अपनी-अपनी जगह उर्दू अदब को समृद्ध किया।

ज़ौक़ की जिंदगी का बड़ा हिस्सा शाही दरबार की खिदमत में गुज़रा। 1854 में उनका इंतिकाल हो गया, लेकिन उनकी शायरी आज भी उर्दू अदब की रूह को ज़िंदा रखे हुए है। उनके इंतिकाल के बाद उनकी ज़्यादातर शायरी 1857 के गदर में नष्ट हो गई, फिर भी मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने उनकी बची हुई ग़ज़लों और क़सीदों को संरक्षित किया। ज़ौक़ की जिंदगी और शायरी यह सबक देती है कि सादगी, मेहनत और लगन से इंसान बुलंदियों को छू सकता है। उनकी यादें और उनका फन उर्दू अदब की दुनिया में हमेशा चमकते रहेंगे।ये भी पढ़ें 

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