सैफी सिरोंजी की पैदाइश 1953 में मग़रिबी रियासत मध्य प्रदेश के सिरोंज इलाके के पिगरानी महू खेड़ा गाँव में हुआ। आपका असली नाम रमजानी है, जो आपको रमज़ान के महीने में पैदा होने की वजह से दिया गया।
इब्तिदाई ज़िन्दगी और ख़ानदानी पस-ए-मंज़र (आरम्भिक जीवन व पारिवारिक पृस्ठभूमि)
सैफी का ख़ानदान गढ़ी क़बीले से ताल्लुक़ रखता था, जो मोहम्मद गौरी की फ़ौज में आला ओहदों पर फ़ाइज़ था। मगर पृथ्वीराज चौहान के ख़िलाफ़ लड़ाई में शिकस्त के बाद, इस क़बीले के लोगों ने इस्लाम क़बूल कर लिया। गढ़ी क़बीले के लोग ज़्यादातर ना-ख़्वानदा थे और बुनियादी तौर पर मवेशी पालन से मंसूब थे।
तालीम और इब्तिदाई दिलचस्पियाँ
छह साल की उम्र में, सैफी सिरोंजी के दादा ने आपको मदरसे में दाख़िल कराया, जहां आपने क़ुरान के कुछ पारह याद किए। मगर जल्द ही, आपकी दिलचस्पी फिल्मों और गानों में ज़्यादा हो गई, जिसके चलते आपने मदरसा छोड़ दिया। इस दौरान आपने बीड़ी बनाने की फैक्ट्री में काम करना शुरू किया, जहां रेडियो पर गाने सुनना आपको बहुत पसंद था।
अदबी शऊर और इब्तिदाई तहरीरें (आरम्भिक रचनाये)
सैफी सिरोंजी का अदबी सफर बीड़ी फैक्ट्री से शुरू हुआ, जो मशहूर शायर दिलकश सागरी की थी। इस फैक्ट्री में बाक़ायदगी से अदबी और शाइरी महफ़िलें मुनअक़िद होती थीं। यहीं से सैफी को उर्दू अदब से लगाव हुआ। आपने उर्दू की मशहूर रिसालों और किताबों का मुताला शुरू किया और धीरे-धीरे आपने खुद भी शाइरी लिखनी शुरू की।
अदबी सफर और अहम तसानीफ़ (रचनाओं का संग्रह)
1970 के दशक में, सैफी सिरोंजी ने नातें लिखनी शुरू कीं, जो मिलाद-उन-नबी के दौरान पढ़ी जाती थीं। आपकी तखलीकात धीरे-धीरे मशहूर उर्दू रिसालों में शाया होने लगीं। 1985 में, आपका पहला शाइरी मजमूआ "रोशन अलाव" मध्य प्रदेश उर्दू अकादमी की माली इमदाद से शाया हुआ। अब तक, सैफी सिरोंजी ने 75 से ज़्यादा किताबें मुख़्तलिफ़ अस्नाफ़ में शाया की हैं। इनमें आपकी खुद-नवेश्त "सैफी सिरोंजी: शख़्सियत और फ़न" को ख़ास तौर पर सराहा गया है।
बेन-उल-अक़वामी (अंतर राष्ट्रीय) पहचान और सफर
सैफी सिरोंजी ने सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं, बल्कि बैन-उल-अक़वामी सतह पर भी अपनी अदबी पहचान बनाई। आपने यूके, सऊदी अरब, अमेरिका, हॉलैंड, जर्मनी, और पाकिस्तान जैसे ममालिक में मुनअक़िद अदबी सेमिनारों में शिरकत की। आपके मजामीन और नज़्में मुख़्तलिफ़ बैन-उल-अक़वामी अदबी रसीलों में भी शाया हुई हैं।
उर्दू ज़बान के लिए अज़्म (निष्चय)
सैफी सिरोंजी उर्दू ज़बान से बे-इंतेहा मोहब्बत रखते हैं और आपने अपनी पूरी अदबी ज़िंदगी में उर्दू को फरोग़ दिया है। आप उर्दू के घटते हुए दौर बारे में फिक्रमंद हैं और मानते हैं कि उर्दू ज़बान एक अज़ीम अता है, जिसे महफ़ूज़ किया जाना चाहिए। आपने उर्दू ज़बान की अहमियत को उजागर करने के लिए कई नज़्में भी लिखी हैं।
इख़तिताम (समापन)
सैफी सिरोंजी की ज़िंदगी जद्द-ओ-जहद, अज़्म और अदबी अज़मत की अलामत है। आपका सफर, जिसमें आपने एक छोटे से गाँव से शुरूआत करके 75 से ज़्यादा किताबें लिखीं, वाक़ई मुतास्सिरकुन है। सैफी सिरोंजी का अदबी कारनामा उर्दू अदब में बेमिसाल है, और आपकी तखलीकात आने वाली नस्लों के लिए मशल-ए-राह रहेंगी।
सैफई सिरोंजी की शायरी,दोहे
1-ग़ज़ल
2-ग़ज़ल
3-ग़ज़ल
4-ग़ज़ल
मैं एक मुद्दत से जल रहा हूँ
तुम्हारे रस्ते का इक दिया हूँ
तिरी तिजारत चमक रही है
ख़सारा मैं ही उठा रहा हूँ
जिधर से गुज़रा था क़ाफ़िला वो
अभी तलक मैं वहीं खड़ा हूँ
न सच कहूँगा न झूट तुम से
अजीब मुश्किल में पड़ गया हूँ
नहीं है जिस की कोई भी मंज़िल
मैं ऐसे रस्ते पे चल पड़ा हूँ
दोहे
अपनी ख़ुशियाँ भूल जा सब का दर्द ख़रीद 'सैफ़ी' तब जा कर कहीं तेरी होगी ईद
हर महफ़िल में जा मगर इतनी कर ले जाँच ख़ुद्दारी पर भूल कर आए कभी न आँच
मैं हूँ इक ज़र्रा मगर ऊँची मेरी ज़ात मेरे आगे कुछ नहीं तारों की औक़ात