सय्यद अब्दुल्ला शाह कादरी (1680-1757), जिन्हें लोकप्रिय रूप से बाबा बुल्लेशाह या बुल्ला के नाम से जाना जाता है, एक 17वीं और 18वीं सदी के पंजाबी क्रांतिकारी दार्शनिक, सुधारक और सूफी शायर थे। उन्हें "पंजाबी ज्ञानोदय का पिता" कहा जाता है।बाबा बुल्लेशाह ने धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक संस्थानों के खिलाफ खुलकर लिखा और उन्हें अवाम का शायर माना गया। उनकी शायरी ने पंजाबी साहित्य में एक नया युग शुरू किया और सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक सुधारों की एक लहर फैलाई। उनकी ग़ज़लों को कई महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में गाया गया, जिनमें यूनेस्को द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम भी शामिल है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
बुल्लेशाह का जन्म 1680 के आसपास मुल्तान प्रांत, मुगल साम्राज्य (वर्तमान में पंजाब, पाकिस्तान) में एक सय्यद परिवार में हुआ था। उनके पिता, शाह मोहम्मद दरवेश, अरबी, फ़ारसी और क़ुरान के आलिम थे।
जब बुल्लेशाह छह साल के थे, उनका परिवार पंडोके चला गया, जो कसूर से 50 मील दक्षिण-पूर्व में है। बुल्लेशाह ने अपने पिता के साथ गाँव के अन्य बच्चों के साथ शिक्षा प्राप्त की। यह कहा जाता है कि बुल्लेशाह ने अपने बचपन और किशोरावस्था में चरवाहे का काम किया। उन्होंने उच्च शिक्षा कसूर में प्राप्त की। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि बुल्लेशाह ने अपनी शिक्षा हाफिज गुलाम मुर्तज़ा द्वारा चलाए जा रहे एक प्रतिष्ठित मदरसे में प्राप्त की, जहां उन्होंने अपनी स्नातक उपाधि के बाद कुछ समय के लिए पढ़ाया भी। इसके बाद वे लाहौर गए, जहां उन्होंने शाह इनायत कादिरी के साथ अध्ययन किया।ये भी पढ़ें
उत्पीड़न और संघर्ष
बुल्लेशाह को कट्टरपंथियों के एक समूह द्वारा धमकियों का सामना करना पड़ा और उन्होंने एक गुरुद्वारे में शरण ली। उनके जीवन के बुरे समय में, जब उनके परिवार ने भी उनका साथ नहीं दिया, उनकी बहन ने उनका साथ दिया। अपने जीवनकाल में, कुछ मुस्लिम मौलवियों ने उन्हें काफिर घोषित कर दिया।
बुल्ले शाह की पंजाबी शायरी
बाबा बुल्लेशाह की कविताएँ पंजाबी और सिंधी साहित्य में मील का पत्थर जानी जाती हैं। उनकी कविताओं में पारंपरिक सूफी विचार और बौद्धिकता का मिश्रण है। उनकी ग़ज़लों को कई प्रसिद्ध सूफी गायकों ने गाया है, जिनमें नुसरत फतेह अली खान, फरीद अयाज़, पठाने खान, आबिदा परवीन, वडाली ब्रदर्स और साईं जहूर शामिल हैं।
बुल्ले शाह की प्रकाशित पुस्तकें
1 -बुल्ले शाह के कलाम
2 -कलाम -ए - बुल्ले शाह 1976
3 - काफी हाय
4 -कुल्लियात - ए - बुल्ले शाह 1960
5 -कुल्लियात - ए - बुल्ले शाह 1964
दार्शनिक विचार
बुल्लेशाह के गैर-परंपरागत विचार और सरल भाषा ने उनकी कविताओं को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी शायरी में मानवता, समानता, सहिष्णुता, और धार्मिक उलेमा के अधिकार को चुनौती देने की विचारधारा है।
मृत्यु
बुल्लेशाह का निधन 1757 में 77 वर्ष की आयु में हुआ। धार्मिक कट्टरपंथियों ने उन्हें गैर-मुस्लिम घोषित कर दिया और उनकी अंतिम प्रार्थना में शामिल होने से मना कर दिया। उन्हें कसूर में दफनाया गया, जहां उन्होंने अपने जीवन का अधिकांश समय बिताया।
विरासत
बाबा बुल्लेशाह की कविताओं का प्रभाव कई प्रसिद्ध समाजवादियों, प्रगतिशीलों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं पर देखा जा सकता है। उनकी कविताओं को कई आधुनिक गायकों और बैंडों ने भी अपनाया है। बुल्लेशाह की कविताएँ आज भी पंजाबी साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और उनकी लोकप्रियता समय के साथ बढ़ती जा रही है।ये भी पढ़ें
बुल्ले शाह की पंजाबी शायरी, दोहे, कलाम,शबद
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
ना मैं मोमन विच मसीतां, ना मैं विच कुफ़र दीआं रीतां
ना मैं पाकां विच पलीतां, ना मैं मूसा ना फरऔन
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
ना मैं अन्दर बेद किताबां, ना विच भंगां ना शराबां
ना विच रिन्दां मसत खराबां, ना विच जागन ना विच सौण
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
ना विच शादी ना ग़मनाकी, ना मैं विच पलीती पाकी
ना मैं आबी ना मैं ख़ाकी, ना मैं आतिश ना मैं पौण
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
ना मैं अरबी ना लाहौरी, ना मैं हिन्दी शहर नगौरी
ना हिन्दू ना तुर्क पशौरी, ना मैं रहन्दा विच नदौण
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
ना मैं भेत मज़हब दा पाइआ, ना मैं आदम हवा जाइआ
ना मैं आपना नाम धराइआ, ना विच बैठण ना विच भौण
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
अव्वल आखर आप नूं जाणां, ना कोई दूजा होर पछाणां
मैथों होर ना कोई स्याणा, बुल्हा शाह खढ़ा है कौण
बुल्ल्हा की जाणा मैं कौण
शबद
जां मां सबक इश्क दा पढ़या, मसजद कोलों जीउड़ा डरया ।
डेरे जा ठाकर दे वड़या, जित्थे वजदे नाद हज़ार ।
जां मै रमज़ इश्क दी पाई, मैना तोता मार गवाई ।
अंदर बाहर होई सफ़ाई, जित वल वेखां यारो यार ।
हीर रांझे दे हो गए मेले, भुल्ली हीर ढूंडेंदी बेले ।
रांझा यार बुक्कल विच खेले, मैनूं सुध बुध रही न सार ।
बेद कुरानां पढ़ पढ़ थक्के, सजदे करदयां घस गए मत्थे ।
न रब्ब तीरथ न रब्ब मक्के, जिस पाया तिस नूर अनवार ।
फूक मुसल्ला भंन सुट लोटा, न फड़ तसबी कासा सोटा ।
आशिक कैह्न्दे दे दे होका, तरक हलालों खाह मुरदार ।
उमर गवाई विच मसीती, अन्दर भरया नाल पलीती ।
कदे नमाज़ तौहीद न कीती, हुण की करनां एं शोर पुकार ।
इश्क भुलाया सजदा तेरा, हुण क्यो ऐवें पावें झेड़ा ।
बुल्ला हुंदा चुप बथेरा, इश्क करेंदा मारो मार ।
इश्क दी नवियों नवीं बहार ।
शबद
सुत्ता उठ के कोई नहीं खुश हुंदा बुल्लेया
ते बड़े सुत्ते जगा के वेखिया ए
कुत्ते जिहा कोई नहीं वफादार डिट्ठा
ते टुक्कर सुक्का वी पा के वेखिआ ए
तोता जदों वी छड्डिए उड्ड जांदा
कईआं चूरिआं पा के वेखिआ ए
डंग मारनों कदे वी सप्प नहीं हटदा
कईआं दूध पिआ के वेखिआ ऐ
बिन मतलब कोई नहीं यार बणदा
बड़े यार बणा के वेखिआ ऐ
वाह-वाह करके सारे तुर जांदे
बड़े गाउण सुणा के वेखिआ ऐ
मजा नहीं अल्लाह वाली तार जिहा
बड़े वाजे वजा के वेखिआ ऐ
चल लाइए बुल्लेआ अल्लाह नाल
जग नूं बड़ा अजमा के वेखिआ ऐ
औखे पैंडे रब्ब ना लभ्भिआ
थक हार के सौं गए बुल्लेआ
मस्ती दे विज उमर गुजर गई
दुनियां दे विच्च खो गए बुल्लेआ
दिन लंघ गए सुक्खां वाले
गमां दी आ गई रात वे बुल्लेआ
कल्ली जान ते घुप्प हनेरा
हाये संगी छड्ड गए राह विच वे बुल्लेआ
दोहे
बुल्लया अच्छे दिन तो पिच्छे गए, जब हर से किया न हेत
अब पछतावा क्या करे, जब चिड़ियाँ चुग गईं खेत
बुल्लया जैसी सूरत ऐन दी, तैसी ग़ैन पछान ।
इक नुकते दा फेर है, भुल्ला फिरे जहान ।।
चादर मेली ते साबन थोड़ा बैठ किनारे धोवेंगा
दाग़ नहीं छुटणय पापां वाले धोवेगा फिर रोवेगा
Conclusion:-
बुल्ले शाह, एक महान सूफी पंजाबी शायर थे, जिन्होंने अपनी आध्यात्मिक और मानवतावादी कविताओं से प्रसिद्धि पाई। उन्होंने अपने गीतों और दोहों के माध्यम से प्रेम, शांति, और मानव एकता का संदेश दिया। बुल्ले शाह की रचनाएं न केवल उनके समय में लोकप्रिय रहीं बल्कि आज भी लोगों के दिलों को छूती हैं। उन्होंने सामाजिक भेदभाव, धार्मिक कट्टरता और व्यक्तिगत स्वार्थ पर अपने काव्य के माध्यम से प्रश्न उठाए। उनका जीवन और साहित्य सूफी परंपरा का प्रतीक है, जो हर व्यक्ति को आत्मा और परमात्मा के बीच के सीधे संबंध को समझने और अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है। उनका योगदान पंजाबी साहित्य और सूफी दर्शन में अमर रहेगा।ये भी पढ़ें