इब्तिदाई ज़िंदगी और तालीम (Education)
मजाज़ के भाई अन्सार हर्वानी एक नामवर सहाफ़ी (पत्रकार) थे, और उनकी दो बहनें थीं — सफ़िया और हमिदा। सफ़िया की शादी मशहूर शायर जान निसार अख़्तर से हुई, और इस रिश्ते के ज़रिए जावेद अख़्तर मजाज़ के भांजे हुए।
बचपन से ही मजाज़ को सुनने में हल्की परेशानी (hearing impairment) थी, जिसकी वजह से उनका मिज़ाज कुछ अलग-सा रहता — कभी हद से ज़्यादा खामोश, तो कभी बेहद पुरजोश। यही तास्सुर बाद में उनकी शायरी की ताबीर बना।
वो रातों में जागना पसंद करते थे और अक्सर अपनी तख़्लीक़ात रात ही में लिखते थे। इसी आदत के चलते दोस्तों और घरवालों ने उन्हें प्यार से “जग्गन भैया” कहकर पुकारना शुरू किया।
बाद के दौर में, अख़बारों और तज़किरा-निगारों ने लिखा कि शायद मजाज़ को दो-पहलू ज़ेहनी कैफ़ियत (bipolar disorder) था — वही कैफ़ियत जिसने उनकी शख़्सियत को एक तरफ़ से नर्म, तो दूसरी तरफ़ से तूफ़ानी बना दिया।
1920 के दशक के आख़िर में, उनके वालिद की तबादला-ए-ख़िदमत (transfer) आगरा में हुई। अब बूढ़े वालिदैन का इंतक़ाल हो चुका था, इसलिए वो अपने बीवी-बच्चों को साथ ले आए।
मजाज़ ने आगरा में अपनी स्कूल की तालीम मुकम्मल की और 1929 में सेंट जॉन्स इंटरमीडिएट कॉलेज में दाख़िला लिया। मगर उसी साल उनके वालिद का तबादला अलीगढ़ हो गया। मजाज़ को हॉस्टल में छोड़ा गया और पहली बार उन्हें अपनी मर्ज़ी से ज़िंदगी जीने की आज़ादी मिली — नक़द ख़र्च, दोस्तों की महफ़िलें, और देर रात तक जागना।
पढ़ाई से वो कुछ बेपरवाह हो गए, मगर उनका वक़्त शायरों की महफ़िलों और संगीत की बैठकों में गुज़रता। इसी दौरान वो फ़ानी बदायूनी, आले अहमद सुरूर, और जज़्बी जैसे शायरों के क़रीब आए।
1931 में उन्होंने मुश्किलात के बावजूद इंटरमीडिएट इम्तहान पास किया और अलीगढ़ जाकर अपने वालिदैन के साथ रहने लगे।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में उनका दाख़िला B.A. में हुआ, जहाँ उन्होंने फ़लसफ़ा (Philosophy), मश्तिसादीyat (Economics) और उर्दू अदब को अपने मज़ामीन (subjects) के तौर पर चुना।
1936 में उन्होंने अपनी तालीम मुकम्मल की — एक साल की देर से सही, मगर एक ऐसी अदबी पहचान के साथ जो उन्हें आने वाले दौर का सबसे शोख़, सबसे दिलकश शायर बना गई।
अदबी सफ़र और तख़्लीक़ का इंक़लाबी दौर
अदबी सफ़र (Career)
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का दौर मजाज़ लखनवी की ज़िंदगी का सबसे अहम और तख़्लीक़ी मरहला था। यही वो ज़माना था जब अलीगढ़ उर्दू अदब का मरकज़ बन चुका था — एक ऐसी नर्सरी जहाँ हर गली में कोई शायर, कोई अफ़्साना-निगार या कोई मुतरजिम पल रहा था।
इन्हीं फ़िज़ाओं में मजाज़ की मुलाक़ात प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट (तहरीक-ए-तरक़्क़ी-पसंद) से हुई, जहाँ डॉ. के.एम. अशरफ़ और अब्दुल अलीम जैसे दानिशवर मौजूद थे। इस तहरीक़ ने उनके फ़िक्र और लफ़्ज़ दोनों को एक इंक़लाबी रुख़ दिया।
मजाज़ का अदबी दायरा वसीअ था — उनके दौर के अज़ीम शायरों और अदबी शख्सियतों में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, फ़ानी बदायूनी, जज़्बी, मख़दूम मोहिउद्दीन, साहिर लुधियानवी, इस्मत चुग़ताई, और अली सरदार जाफ़री शामिल थे। ये लोग सिर्फ़ उनके दौर के हम-अस्र नहीं, बल्कि उनके क़रीबी दोस्त भी थे।
जोश मलीहाबादी और फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे बड़ों ने भी उनके हुनर की खुलकर तारीफ़ की।
उनका पहला शायरी संग्रह "आहंग" (Āhang) उनकी तख़्लीक़ी पहचान बना — जिसमें उन्होंने फ़ैज़ और जज़्बी को अपना “दिल-ओ-जिगर”, और सरदार जाफ़री व मख़दूम को “दस्त-ओ-बाज़ू” कहा।
इस मजमूए का दीबाचा (प्रस्तावना) ख़ुद फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने लिखा — एक ऐसा दीबाचा जो उर्दू अदब में आज भी अदबी शहादत के तौर पर देखा जाता है।
माली मुश्किलात के सबब मजाज़ अपनी एम.ए. की तालीम पूरी न कर सके और अलीगढ़ से दिल्ली चले आए, जहाँ उन्होंने जर्नल "आवाज़" में बतौर सब-एडिटर काम शुरू किया।
दिल्ली में वो प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन की शाख़ से बाक़ायदा तौर पर जुड़े, जिसकी क़ियादत शाहिद अहमद देहलवी के हाथों में थी।
इसके बाद उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में तक़रीबन एक साल तक नौकरी की, जहाँ उन्होंने रेडियो के लिए अदबी प्रोग्राम लिखे और पढ़े।
बाद में वो बॉम्बे (मुंबई) चले गए, जहाँ उन्होंने गवर्नमेंट ऑफ़ बॉम्बे के Department of Information में मुलाज़मत की।
1937 में मजाज़ लखनऊ लौटे, जहाँ उन्होंने अली सरदार जाफ़री और सिब्ते हसन के साथ मिलकर एक अदबी रिसाला “पर्चम” (Parcham) की बुनियाद रखी — जो अफ़सोस कि सिर्फ़ एक ही इश्यू तक सीमित रहा, लेकिन अदबी तहरीक़ की ज़मीन पर गहरा नक़्श छोड़ गया।
लखनऊ में उन्होंने हलक़ा-ए-अदब और नया अदब जैसे अदबी जर्नलों में एडिटोरियल टीम के हिस्से के तौर पर काम किया, जहाँ उनका साथ फिर वही पुराने दोस्त — सरदार जाफ़री और सिब्ते हसन — निभा रहे थे।
मजाज़ का ये दौर उनकी ज़िंदगी का सबसे नूरानी और सबसे हलचल भरा वक़्त था — जहाँ वो सिर्फ़ शायर नहीं रहे, बल्कि एक सोच बन गए, एक तहरीक़ बन गए, जिसने उर्दू अदब में नर्मी के साथ इंक़लाब की आवाज़ बुलंद की।
मजाज़ लखनवी की अहम तस्नीफ़ात (प्रमुख रचनाएँ)
मजाज़ लखनवी की तख़्लीक़ात (रचनाएँ) उनके गहरे तसव्वुर, जज़्बाती बुलंदी और समाजी शऊर का आईना हैं। उनकी शायरी में एक तरफ़ रुमानियत की नरमी है, तो दूसरी तरफ़ इन्क़लाबी जोश की हरारत। मजाज़ का कलाम सिर्फ़ अशआर नहीं — एक एहसास, एक सोच और एक दौर की नुमाइंदगी करता है।
उनकी कुछ नामवर तस्नीफ़ात ये हैं:
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“आहंग” (1938) — मजाज़ का पहला दीवान, जिसने उन्हें अदबी दुनिया में एक अलग पहचान दी।
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“शब-ए-तर” (1945) — उनके जज़्बाती और तर्ज़े-फ़िक्र का शानदार नमूना।
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“साज़-ए-नौ” (1949) — एक नया एहसास, एक नई सिम्त में मजाज़ की तलाश।
उनकी मशहूर नज़्म “अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का तराना” आज भी उसी जज़्बे और शान से गूँजती है, जो मजाज़ के कलाम की पहचान है —
एक ऐसा तराना जो इल्म, इश्क़ और फ़िक्र की रूह को एक साथ ज़िंदा कर देता है।
वफ़ात (Death)
मजाज़ की आख़िरी मंज़िल भी उनकी ज़िंदगी की तरह दर्द और तन्हाई से लिपटी हुई थी। 5 दिसम्बर 1955 को, जब लखनऊ में स्टूडेंट्स उर्दू कन्वेंशन चल रहा था, उसी दौरान यह ख़बर फैली कि असरार-उल-हक़ ‘मजाज़ लखनवी’ अब इस दुनिया में नहीं रहे। 7 दिसम्बर को रिफ़ाह-ए-आम हाल में उनकी याद में ताज़ियती इजलास हुआ, जिसमें मुल्क भर के अदीब और शायर शामिल हुए।
रिवायतोँ के मुताबिक, उनकी मौत बेहद अफ़सोसनाक हालात में हुई। उस सर्द रात को, मजाज़ अपने दोस्तों के साथ लखनऊ के लालबाग़ की एक शराबख़ाने की छत पर बैठे थे। देर रात तक महफ़िल चली, मगर एक-एक करके तमाम दोस्त चले गए — और मजाज़ तन्हा, ठंडी हवाओं के दरमियान, उसी छत पर रह गए। सुबह जब उन्हें अस्पताल पहुँचाया गया, तो डॉक्टरों ने ब्रेन हेमरेज और निमोनिया की तश्ख़ीस की — और वही उनकी आख़िरी रात साबित हुई।
मजाज़ को लखनऊ के निशातगंज क़ब्रिस्तान में दफ़न किया गया। उनकी मर्हूम क़ब्र पर खुद उनका लिखा हुआ ये शेर उकेरा गया है —
मजाज़ लखनवी की शायरी/ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
2-ग़ज़ल
3-ग़ज़ल
4-ग़ज़ल
5-नज़्म
निष्कर्ष:-
मजाज़ लखनवी की शायरी का कभी न खत्म होने वाला जादू
मजाज़ लखनवी का जीवन संघर्ष, इश्क़, और जज़्बे से भरा हुआ था। उनकी शायरी सिर्फ लफ़्ज़ों का खेल नहीं थी, बल्कि एक ऐसी सदा थी जो आज भी हमारे दिलों में गूँजती है। उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से न सिर्फ मोहब्बत की नर्मियों को बयान किया, बल्कि समाज में फैली नाइंसाफी, जुल्म, और अत्याचार के खिलाफ़ भी आवाज़ बुलंद की। उनकी शायरी की खनक आज भी उतनी ही ताज़ा है, जितनी उनके दौर में थी।
मजाज़ की शायरी में इश्क़ की गहराई, विद्रोह की चिंगारी, और उम्मीद की किरण एक साथ नज़र आती है। उन्होंने मोहब्बत और क्रांति को एक धागे में पिरोया, और इसी अनोखे अंदाज़ ने उन्हें उर्दू अदब में एक खास मुकाम दिलाया। उनकी नज़्में और ग़ज़लें आज भी दिलों को छूती हैं और हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि किस तरह से मोहब्बत और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी को एक साथ निभाया जा सकता है।
उनकी शायरी में सिर्फ मोहब्बत का रंग नहीं, बल्कि उस दौर की हक़ीक़त की तस्वीर भी थी। मजाज़ ने अपने कलाम में न सिर्फ टूटे दिल की कसक को बयाँ किया, बल्कि समाज के दर्द को भी बड़ी खूबसूरती से पेश किया। उनकी शायरी में वह असर था जो सीधी दिल में उतर जाती है, जिससे हर शख्स खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है।
मजाज़ की शायरी ने उस वक़्त के नौजवानों को एक नई सोच, एक नया मकसद दिया। उन्होंने अपनी शायरी से ये बताया कि शायर सिर्फ़ महबूब का दीवाना ही नहीं होता, बल्कि समाज का सच्चा आईना भी होता है। उनकी शायरी ने हमें ये सिखाया कि किस तरह से ज़िंदगी के हर पहलू में संघर्ष और मोहब्बत को साथ लेकर चला जा सकता है।
मजाज़ लखनवी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी के रूप में उनकी रूह आज भी हमारे साथ है। उनकी कविताएं, ग़ज़लें, और नज़्में हमें याद दिलाती हैं कि कैसे एक आम इंसान अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिए एक खास इंसान बन जाता है। उनका अदबी योगदान सिर्फ उर्दू अदब को नहीं, बल्कि इंसानियत को भी रोशन करता है।
उनकी शायरी एक सफ़र है—एक ऐसा सफ़र जो हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने, अपने दिल की गहराई में झांकने, और दुनिया को एक नए नज़रिए से देखने की हिम्मत देता है। उनके हर अल्फ़ाज़ में एक नई दुनिया छुपी हुई है, जहाँ मोहब्बत, जद्दोजहद, और आज़ादी के नए मायने नज़र आते हैं। इसी वजह से मजाज़ सिर्फ़ एक शायर नहीं, एक अहद की आवाज़ थे, और उनकी शायरी हमेशा दिलों को रोशन करती रहेगी।ये भी पढ़ें
