मजाज़ लखनवी: इश्क़ और इंक़लाब के शायर

 

मजाज़ लखनवी का प्रारंभिक जीवन

असरार-उल-हक़ 'मजाज़ लखनवी' का जन्म 19 अक्टूबर 1911 को उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले के रुदौली कस्बे में हुआ था। उनके पिता, सेराज-उल-हक़, सरकारी सेवा में सहायक पंजीयक थे, जबकि परिवार की आर्थिक स्थिति साधारण थी। मजाज़ का बचपन रुदौली में बीता, जहां उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की।



शिक्षा और साहित्यिक शुरुआत

मजाज़ ने 1929 में आगरा के सेंट जॉन्स इंटरमीडिएट कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन परिवार के अलीगढ़ स्थानांतरण के बाद, उन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में दाखिला लेना पड़ा। यहां उन्होंने बीए की डिग्री पूरी की और कई प्रमुख शायरों जैसे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, फानी बदायूनी, और साहिर लुधियानवी से जुड़े। उनकी कविताओं में रोमांस, सामाजिक न्याय, और स्वतंत्रता की भावना को प्रकट किया गया है।

साहित्यिक करियर की ऊंचाइयां

अलीगढ़ में, मजाज़ लखनवी की साहित्यिक यात्रा ने नई ऊंचाइयों को छुआ। 1938 में उनका पहला काव्य संग्रह 'आहंग' प्रकाशित हुआ, जिसने उन्हें उर्दू साहित्य के प्रतिष्ठित कवियों की श्रेणी में खड़ा कर दिया। उन्होंने दिल्ली में "आवाज़" पत्रिका के सह-संपादक के रूप में भी कार्य किया और ऑल इंडिया रेडियो में भी कुछ समय तक काम किया। 1937 में, लखनऊ लौटने पर, उन्होंने 'परचम' नामक एक साहित्यिक पत्रिका की शुरुआत की, हालांकि यह केवल एक अंक तक चली।

मजाज़ लखनवी की प्रमुख रचनाएँ

मजाज़ की रचनाएँ उनकी गहरी सोच, भावनात्मक गहराई और सामाजिक सरोकारों को प्रतिबिंबित करती हैं। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं:

आहंग (1938)

शब-ए-तर (1945)

साज़-ए-नौ (1949)

उनकी कविता "अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय" का तराना (गान) बन गई, जो आज भी बहुत लोकप्रिय है।



मजाज़ का निजी जीवन और संघर्ष

मजाज़ लखनवी का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा। अत्यधिक शराब के सेवन ने उनके स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित किया। 5 दिसंबर 1955 को, एक उर्दू सम्मेलन के दौरान, लखनऊ के लालबाग इलाके में उनकी तबीयत बिगड़ गई और अगले ही दिन मस्तिष्क आघात और निमोनिया के कारण उनका निधन हो गया।

मजाज़ लखनवी की विरासत

मजाज़ लखनवी की याद में, कई पुस्तकें और फिल्में बनाई गईं। सलमान अख्तर द्वारा संपादित 'मजाज़ और उसकी शायरी' पुस्तक ने उनके जीवन और रचनाओं को समेटा। उनकी जीवन गाथा पर आधारित फिल्म 'मजाज़: ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ' 2017 में रिलीज़ हुई। इसके अलावा, दूरदर्शन पर 'कहकशां' नामक बायोग्राफिकल टेलीफिल्म में भी उनके जीवन का चित्रण किया गया।

मजाज़ लखनवी की साहित्यिक धरोहर

मजाज़ लखनवी न केवल उर्दू साहित्य के एक महान शायर थे, बल्कि उन्होंने सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता, और प्रेम के लिए अपने शब्दों के माध्यम से एक नई सोच का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी शायरी में रोमांस के साथ-साथ क्रांति की भावना झलकती है, जो आज भी पाठकों को प्रेरित करती है।

मजाज़ लखनवी की शायरी/ग़ज़लें,नज़्में 

1-ग़ज़ल 

जुनून ए शौक़ अब भी कम नहीं है
मगर वो आज भी बरहम नहीं है

बहुत मुश्किल है दुनिया का सँवरना
तिरी ज़ुल्फ़ों का पेच ओ ख़म नहीं है

बहुत कुछ और भी है इस जहाँ में
ये दुनिया महज़ ग़म ही ग़म नहीं है

तक़ाज़े क्यूँ करूँ पैहम न साक़ी
किसे याँ फ़िक्र ए बेश ओ कम नहीं है

उधर मश्कूक है मेरी सदाक़त
इधर भी बद गुमानी कम नहीं है

मिरी बर्बादियों का हम नशीनो
तुम्हें क्या ख़ुद मुझे भी ग़म नहीं है

अभी बज़्म ए तरब से क्या उठूँ मैं
अभी तो आँख भी पुर नम नहीं है

ब ईं सैल ए ग़म ओ सैल ए हवादिस
मिरा सर है कि अब भी ख़म नहीं है

'मजाज़' इक बादा कश तो है यक़ीनन
जो हम सुनते थे वो आलम नहीं है


2-ग़ज़ल 


जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है

मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है

जो दिल तेरे ग़म का निशाना भी है
क़तील ए जफ़ा ए ज़माना भी है

ये बिजली चमकती है क्यूँ दम-ब-दम
चमन में कोई आशियाना भी है

ख़िरद की इताअत ज़रूरी सही
यही तो जुनूँ का ज़माना भी है

न दुनिया न उक़्बा कहाँ जाइए
कहीं अहल ए दिल का ठिकाना भी है

मुझे आज साहिल पे रोने भी दो
कि तूफ़ान में मुस्कुराना भी है

ज़माने से आगे तो बढ़िए 'मजाज़'
ज़माने को आगे बढ़ाना भी है

3-ग़ज़ल 



कमाल ए इश्क़ है दीवाना हो गया हूँ मैं
ये किस के हाथ से दामन छुड़ा रहा हूँ मैं

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं

ये मेरे इश्क़ की मजबूरियाँ मआज़ अल्लाह
तुम्हारा राज़ तुम्हीं से छुपा रहा हूँ मैं

इस इक हिजाब पे सौ बे हिजाबियाँ सदक़े
जहाँ से चाहता हूँ तुम को देखता हूँ मैं

बताने वाले वहीं पर बताते हैं मंज़िल
हज़ार बार जहाँ से गुज़र चुका हूँ मैं

कभी ये ज़ोम कि तू मुझ से छुप नहीं सकता
कभी ये वहम कि ख़ुद भी छुपा हुआ हूँ मैं

मुझे सुने न कोई मस्त ए बादा ए इशरत
'मजाज़' टूटे हुए दिल की इक सदा हूँ मैं

4-ग़ज़ल 

हुस्न को बे हिजाब होना था
शौक़ को कामयाब होना था

हिज्र में कैफ़ ए इज़्तिराब न पूछ
ख़ून ए दिल भी शराब होना था

तेरे जल्वों में घिर गया आख़िर
ज़र्रे को आफ़्ताब होना था

कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी
कुछ मुझे भी ख़राब होना था

रात तारों का टूटना भी 'मजाज़'
बाइस ए इज़्तिराब होना था

5-नज़्म 

अपने दिल को दोनों आलम से उठा सकता हूँ मैं 

क्या समझती हो कि तुम को भी भुला सकता हूँ मैं 

कौन तुम से छीन सकता है मुझे क्या वहम है 

ख़ुद ज़ुलेख़ा से भी तो दामन बचा सकता हूँ मैं 

दिल में तुम पैदा करो पहले मिरी सी जुरअतें 

और फिर देखो कि तुम को क्या बना सकता हूँ मैं 

दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को 

और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ में 

में क़सम खाता हूँ अपने नुत्क़ के ए'जाज़ की 

तुम को बज़्म ए माह ओ अंजुम में बिठा सकता हूँ मैं 

सर पे रख सकता हूँ ताज ए किश्वर ए नूरानियाँ 

महफ़िल ए ख़ुर्शीद को नीचा दिखा सकता हूँ मैं 

मैं बहुत सरकश हूँ लेकिन इक तुम्हारे वास्ते 

दिल बुझा सकता हूँ मैं आँखें बचा सकता हूँ मैं 

तुम अगर रूठो तो इक तुम को मनाने के लिए 

गीत गा सकता हूँ मैं आँसू बहा सकता हूँ मैं 

जज़्ब है दिल में मिरे दोनों जहाँ का सोज़ ओ साज़ 

बरबत ए फ़ितरत का हर नग़्मा सुना सकता हूँ मैं 

तुम समझती हो कि हैं पर्दे बहुत से दरमियाँ 

मैं ये कहता हूँ कि हर पर्दा उठा सकता हूँ मैं 

तुम कि बन सकती हो हर महफ़िल में फ़िरदौस ए नज़र 

मुझ को ये दावा कि हर महफ़िल पे छा सकता हूँ मैं 

आओ मिल कर इंक़लाब ए ताज़ा तर पैदा करें 

दहर पर इस तरह छा जाएँ कि सब देखा करें 


निष्कर्ष:-


मजाज़ लखनवी की शायरी का कभी न खत्म होने वाला जादू

मजाज़ लखनवी का जीवन संघर्ष, इश्क़, और जज़्बे से भरा हुआ था। उनकी शायरी सिर्फ लफ़्ज़ों का खेल नहीं थी, बल्कि एक ऐसी सदा थी जो आज भी हमारे दिलों में गूँजती है। उन्होंने अपने अल्फ़ाज़ से न सिर्फ मोहब्बत की नर्मियों को बयान किया, बल्कि समाज में फैली नाइंसाफी, जुल्म, और अत्याचार के खिलाफ़ भी आवाज़ बुलंद की। उनकी शायरी की खनक आज भी उतनी ही ताज़ा है, जितनी उनके दौर में थी।

मजाज़ की शायरी में इश्क़ की गहराई, विद्रोह की चिंगारी, और उम्मीद की किरण एक साथ नज़र आती है। उन्होंने मोहब्बत और क्रांति को एक धागे में पिरोया, और इसी अनोखे अंदाज़ ने उन्हें उर्दू अदब में एक खास मुकाम दिलाया। उनकी नज़्में और ग़ज़लें आज भी दिलों को छूती हैं और हमें सोचने पर मजबूर करती हैं कि किस तरह से मोहब्बत और समाज के प्रति ज़िम्मेदारी को एक साथ निभाया जा सकता है।

उनकी शायरी में सिर्फ मोहब्बत का रंग नहीं, बल्कि उस दौर की हक़ीक़त की तस्वीर भी थी। मजाज़ ने अपने कलाम में न सिर्फ टूटे दिल की कसक को बयाँ किया, बल्कि समाज के दर्द को भी बड़ी खूबसूरती से पेश किया। उनकी शायरी में वह असर था जो सीधी दिल में उतर जाती है, जिससे हर शख्स खुद को जुड़ा हुआ महसूस करता है।

मजाज़ की शायरी ने उस वक़्त के नौजवानों को एक नई सोच, एक नया मकसद दिया। उन्होंने अपनी शायरी से ये बताया कि शायर सिर्फ़ महबूब का दीवाना ही नहीं होता, बल्कि समाज का सच्चा आईना भी होता है। उनकी शायरी ने हमें ये सिखाया कि किस तरह से ज़िंदगी के हर पहलू में संघर्ष और मोहब्बत को साथ लेकर चला जा सकता है।

मजाज़ लखनवी आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी शायरी के रूप में उनकी रूह आज भी हमारे साथ है। उनकी कविताएं, ग़ज़लें, और नज़्में हमें याद दिलाती हैं कि कैसे एक आम इंसान अपने अल्फ़ाज़ के ज़रिए एक खास इंसान बन जाता है। उनका अदबी योगदान सिर्फ उर्दू अदब को नहीं, बल्कि इंसानियत को भी रोशन करता है।

उनकी शायरी एक सफ़र है—एक ऐसा सफ़र जो हमें अपनी जड़ों की ओर लौटने, अपने दिल की गहराई में झांकने, और दुनिया को एक नए नज़रिए से देखने की हिम्मत देता है। उनके हर अल्फ़ाज़ में एक नई दुनिया छुपी हुई है, जहाँ मोहब्बत, जद्दोजहद, और आज़ादी के नए मायने नज़र आते हैं। इसी वजह से मजाज़ सिर्फ़ एक शायर नहीं, एक अहद की आवाज़ थे, और उनकी शायरी हमेशा दिलों को रोशन करती रहेगी।ये भी पढ़ें 


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