मौलाना हसरत मोहानी की जीवनी
मौलाना हसरत मोहानी का असली नाम सैयद फ़ज़ल-उल-हसन था। उन्हें "हसरत मोहानी" के नाम से जाना जाता है, जो उनका तख़ल्लुस (उपनाम) था। वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महान योद्धा और उर्दू साहित्य के प्रमुख कवि थे। उन्होंने "इंकलाब ज़िंदाबाद" का नारा 1921 में गढ़ा, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक प्रतीक बन गया। मौलाना हसरत मोहानी ने 1921 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में स्वामी कुमारानंद के साथ मिलकर भारत की पूर्ण स्वतंत्रता की मांग की थी, जिसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक मील का पत्थर माना जाता है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
मौलाना हसरत मोहानी का जन्म 1 जनवरी 1875 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के मोहन नामक कस्बे में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से ईरान के निशापुर से भारत आया था। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा कानपुर के वर्नाकुलर मिडल स्कूल, फतेहपुर हस्वाह में प्राप्त की। आठवीं कक्षा में उत्तर प्रदेश में प्रथम स्थान प्राप्त किया और गणित में मैट्रिक की परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। उन्हें दो छात्रवृत्तियाँ मिलीं – एक सरकार से और दूसरी मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज से।
हसरत मोहानी ने 1903 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज (जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना) से बीए की पढ़ाई पूरी की, हालांकि उन्हें ब्रिटिश सरकार की आलोचना के कारण तीन बार कॉलेज से निष्कासित भी किया गया। अलीगढ़ में उनके साथियों में मोहम्मद अली जौहर और शौकत अली शामिल थे। उनकी शायरी के उस्ताद तस्लीम लखनवी और नसीम देहलवी थे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने उनके सम्मान में एक हॉस्टल का नाम उनके नाम पर रखा है।
राजनीतिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम
मौलाना हसरत मोहानी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया। वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सदस्य रहे और 1919 में ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के अध्यक्ष भी बने। उन्होंने भारत के विभाजन का कड़ा विरोध किया। जब 3 जून 1947 को विभाजन योजना की घोषणा की गई, तो उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और विभाजन के बाद स्वतंत्र भारत में रहने का निर्णय लिया। वह भारतीय संविधान सभा के सदस्य बने, जिसने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया।
उन्होंने कभी भी सरकारी भत्ते स्वीकार नहीं किए और सरकारी आवास में भी नहीं रहे। वह हमेशा साधारण जीवन जीते थे और संसद तक पहुँचने के लिए तांगे में यात्रा करते थे। वह कई बार हज यात्रा पर भी गए और हमेशा तीसरे दर्जे में रेल यात्रा करते थे। जब उनसे पूछा गया कि वह तीसरे दर्जे में क्यों यात्रा करते हैं, तो उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा, "क्योंकि चौथा दर्जा नहीं है।"
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
मौलाना हसरत मोहानी ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्हें 1903 में ब्रिटिश सरकार द्वारा जेल में डाल दिया गया था। उस समय राजनीतिक कैदियों को आम अपराधियों की तरह रखा जाता था और उनसे कठोर श्रम कराया जाता था। 1904 में, उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी में शामिल होकर 'पूर्ण स्वतंत्रता' की मांग की। 1921 में, उन्होंने ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के एक वार्षिक अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए 'पूर्ण स्वतंत्रता' की मांग की।
कम्युनिस्ट आंदोलन और साहित्यिक योगदान
मौलाना हसरत मोहानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे। वह रूसी क्रांति से गहराई से प्रभावित थे। उनका घर 1925 के कानपुर कम्युनिस्ट सम्मेलन की तैयारियों का केंद्र था। उन्होंने 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के स्थापना सम्मेलन में भी भाग लिया।
उनकी साहित्यिक रचनाओं में 'कुल्लियात-ए-हसरत मोहानी' (हसरत मोहानी की शायरी का संग्रह), 'शरह-ए-कलाम-ए-ग़ालिब' (ग़ालिब की शायरी की व्याख्या), 'नुक़ात-ए-सुखन' (शायरी के महत्वपूर्ण पहलू), 'मशाहिदात-ए-जिंदान' (जेल में अनुभव) और 'तज़किरा-तुल-शुआरा' (शायरों पर निबंध) शामिल हैं। उनकी प्रसिद्ध ग़ज़ल 'चुपके चुपके रात दिन' को ग़ुलाम अली और जगजीत सिंह ने गाया, और यह 1982 की फिल्म 'निकाह' में चित्रित की गई थी।
मृत्यु और विरासत
मौलाना हसरत मोहानी का निधन 13 मई 1951 को लखनऊ, भारत में हुआ। उनकी स्मृति में मौलाना नुसरत मोहानी ने 1951 में 'हसरत मोहानी मेमोरियल सोसाइटी' की स्थापना की। कराची, सिंध, पाकिस्तान में 'हसरत मोहानी मेमोरियल लाइब्रेरी एंड हॉल' भी स्थापित किया गया है। भारत और पाकिस्तान में उनके निधन के अवसर पर हर साल कई संस्थाओं द्वारा श्रद्धांजलि सभाएं आयोजित की जाती हैं।
भारत और पाकिस्तान में कई स्थानों और संस्थानों के नाम उनके सम्मान में रखे गए हैं, जैसे कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 'हसरत मोहानी हॉस्टल', कराची में 'हसरत मोहानी रोड', और कानपुर में 'मौलाना हसरत मोहानी अस्पताल'।
प्रकाशन और साहित्यिक कार्य
- उर्दू-ए-मोअल्ला (पत्रिका) (1903 में शुरू की गई)
- कुल्लियात-ए-हसरत मोहानी (शायरी का संग्रह)
- शरह-ए-कलाम-ए-ग़ालिब (ग़ालिब की शायरी की व्याख्या)
- नुक़ात-ए-सुखन (शायरी के महत्वपूर्ण पहलू)
- तज़किरा-तुल-शुआरा (शायरों पर निबंध)
- मशाहिदात-ए-जिंदान (जेल में अनुभव)
मौलाना हसरत मोहानी एक ऐसे स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने अपने जीवन के हर पहलू को संघर्ष और देशप्रेम से जोड़ा। वह एक साधारण, सच्चे और ईमानदार जीवन के प्रतीक थे, जिनकी कविताएँ आज भी हम सभी को प्रेरित करती हैं। उनकी याद और योगदान को हमेशा सम्मान के साथ याद किया जाता रहेगा।
हसरत मोहनी की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
2-ग़ज़ल
3-ग़ज़ल
4-ग़ज़ल
नज़्म
निष्कर्ष
मौलाना हसरत मोहानी एक महान स्वतंत्रता सेनानी, कवि, और चिंतक थे, जिन्होंने अपने जीवन में कई क्षेत्रों में योगदान दिया। उन्होंने न केवल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि उर्दू साहित्य को भी अपनी रचनाओं से समृद्ध किया। "इंकलाब जिंदाबाद" का नारा, जिसे उन्होंने 1921 में दिया, आज भी संघर्ष और स्वतंत्रता की भावना को प्रेरित करता है।
हसरत मोहानी की जीवनशैली, उनकी सादगी, और उनके संघर्ष के प्रति समर्पण ने उन्हें न केवल एक क्रांतिकारी नेता के रूप में स्थापित किया, बल्कि एक ऐसे कवि के रूप में भी जिन्हें कृष्ण भक्ति और प्रेम की भावनाओं ने प्रेरित किया। भारत की आजादी के बाद, उन्होंने देश के बंटवारे का विरोध किया और भारतीय मुसलमानों के हितों की रक्षा के लिए भारत में ही रहने का निर्णय लिया।
उनका जीवन हमें यह संदेश देता है कि सच्चा देशभक्त और कवि वही होता है जो अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे और समाज के हर वर्ग के लिए समानता और न्याय की वकालत करे। उनकी रचनाएं और उनका संघर्ष आज भी हमें प्रेरित करते हैं और उनके योगदान को हमेशा याद रखा जाएगा। मौलाना हसरत मोहानी का नाम भारतीय इतिहास और साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अंकित है, और वे आने वाली पीढ़ियों के लिए सदैव प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे।
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