गौहर रज़ा: साइंटिस्ट, शायर और सोशल एक्टिविस्ट

जीवन परिचय

गौहर रज़ा का नाम एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के रूप में लिया जाता है जिन्होंने विज्ञान (Science), साहित्य (Literature) और सामाजिक न्याय (Social Justice) के क्षेत्र में अमूल्य योगदान दिया है। 17 अगस्त 1956 को इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में जन्मे गौहर रज़ा न केवल एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक (Scientist) और उर्दू कवि (Urdu Poet) हैं, बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता (Social Activist) और वृत्तचित्र फिल्म निर्माता (Documentary Filmmaker) भी हैं। विज्ञान को आम जनमानस तक पहुँचाने और लोगों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण (Scientific Temper) विकसित करने के लिए उन्होंने अपने जीवन को समर्पित किया है। उनकी प्रसिद्ध डॉक्यूमेंट्री फिल्में "जंग-ए-आज़ादी" और "इंक़लाब" स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास और भगत सिंह के विचारों पर आधारित हैं।




प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

गौहर रज़ा का जन्म एक प्रगतिशील परिवार में हुआ था। उनके पिता, वज़ीर हुसैन, एक स्वतंत्रता सेनानी (Freedom Fighter) और कम्युनिस्ट पार्टी (Communist Party) के सदस्य थे। उनकी माता भी एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता (Social Activist) थीं। परिवार के इस प्रगतिशील माहौल का प्रभाव गौहर रज़ा पर पड़ा, और यही कारण था कि उन्होंने बचपन से ही सामाजिक न्याय और समानता के लिए काम करने का संकल्प लिया।

उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अलीगढ़ में पूरी की और फिर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (Aligarh Muslim University, AMU) से इंजीनियरिंग (Engineering) में स्नातक (B.Sc.) की डिग्री 1977 में प्राप्त की। इसके बाद, उन्होंने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (Indian Institute of Technology, IIT), दिल्ली से 1979 में पावर अपरेटस एंड सिस्टम्स (Power Apparatus and Systems) में एम.टेक की डिग्री हासिल की। शिक्षा के दौरान वे स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ इंडिया (SFI) के सदस्य रहे और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एसएफआई सचिव भी बने।

पेशेवर करियर

गौहर रज़ा ने अपने करियर की शुरुआत 1979 में आयशर गुडअर्थ लिमिटेड (Eicher Goodearth Limited) में इलेक्ट्रिकल इंजीनियर (Electrical Engineer) के रूप में की। उन्होंने कंपनी में कई महत्वपूर्ण डिज़ाइन समस्याओं का समाधान किया और तीन साल के भीतर कार्यकारी इंजीनियर (Executive Engineer) के पद तक पहुँच गए। लेकिन उनका मन विज्ञान में अधिक रुचि रखता था, इसलिए 1982 में उन्होंने राष्ट्रीय विज्ञान, प्रौद्योगिकी और विकास अध्ययन संस्थान (National Institute of Science, Technology and Development Studies, NISTADS) में वैज्ञानिक के रूप में काम करना शुरू किया, जहाँ वे अब भी कार्यरत हैं।

साहित्य और काव्य में योगदान

गौहर रज़ा का साहित्यिक सफर भी उतना ही प्रेरणादायक है जितना उनका वैज्ञानिक करियर। उनका काव्य संग्रह "जज़्बों की लौ तेज़ करो" समाज के प्रति उनकी गहरी संवेदनशीलता और साफगोई को दर्शाता है। उनकी प्रसिद्ध कविता "मैं चाहता हूँ" में उन्होंने अंधेरे के दिनों में एक रोमांटिक कविता लिखने की अपनी लाचारी को बड़ी ही संवेदनशीलता से व्यक्त किया है। उनके लेखन में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों की स्पष्टता और ईमानदारी झलकती है, जो उन्हें आज के दौर के महत्वपूर्ण कवियों में शुमार करती है।

प्रमुख रचनाएँ

गौहर रज़ा ने विज्ञान, साहित्य और सामाजिक विषयों पर कई महत्वपूर्ण पुस्तकों और रचनाओं का सृजन किया है, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं:

  • प्लेग, मीडिया और लोग (Plague, Media, and People) (1996) – सह-लेखक: भारवी दत्त और सुरजीत सिंह।
  • संगम पर विज्ञान और जन ज्ञान का संगम (Confluence of Science and Popular Knowledge at Sangam) (1996) – सह-लेखक: सुरजीत सिंह, भारवी दत्त, और जगदीश चंद्र।
  • एक नाजुक अंतरिक्ष यान (A Delicate Spacecraft) (1998) – युवाओं के लिए शांति और निरस्त्रीकरण पर आधारित।
  • जज़्बों की लौ तेज़ करो (Keep the Flame of Emotions Burning) (1999) – कविता संग्रह, राजकमल प्रकाशन।
  • वॉक द स्काई (Walk the Sky) (2001) – महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर आधारित एक नाटक।
  • विज्ञान शिल्प और ज्ञान (Science, Craft, and Knowledge) (2002) – भारत और दक्षिण अफ्रीका के कारीगरों में विज्ञान की समझ पर आधारित एक अध्ययन।
  • एचआईवी/एड्स: सार्वजनिक समझ और दृष्टिकोण (HIV/AIDS: Public Understanding and Attitudes) (2007) – सह-लेखक: सुरजीत सिंह और चदर शेखर प्राण।

पुरस्कार और सम्मान

गौहर रज़ा को उनके साहित्यिक और वैज्ञानिक योगदान के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं:

  • 1999 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission, UGC) द्वारा सर्वश्रेष्ठ विषय विशेषज्ञ (Best Subject Expert) का पुरस्कार
  • 2001 में हिंदी अकादमी (Hindi Academy) द्वारा 'जज़्बों की लौ तेज़ करो' के लिए रचनात्मक साहित्य पुरस्कार (Creative Literature Award)
  • 2002 में विज्ञान लेखन और विज्ञान के प्रचार-प्रसार के लिए उर्दू अकादमी, दिल्ली (Urdu Academy, Delhi) द्वारा सम्मानित

व्यक्तिगत जीवन

गौहर रज़ा की शादी सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी से हुई है, जो मशहूर थिएटर एक्टिविस्ट सफ़दर हाशमी की बहन हैं। दंपति के दो बच्चे हैं, बेटा साहिर रज़ा और बेटी सेहर। यह परिवार धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और सांप्रदायिक सद्भाव के लिए सक्रिय रूप से कार्यरत है।

वृत्तचित्र फिल्में और सामाजिक कार्य

गौहर रज़ा की डॉक्यूमेंट्री फिल्में, जैसे "जंग-ए-आज़ादी" और "इंक़लाब," स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Struggle) और भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों पर आधारित हैं। उनकी फिल्में समाज को शिक्षित और जागरूक करने का काम करती हैं, विशेषकर इतिहास और सामाजिक मुद्दों पर।

गौहर रज़ा की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 

1-ग़ज़ल 

यूरोप जिस वहशत से अब भी सहमा सहमा रहता है
ख़तरा है वो वहशत मेरे मुल्क में आग लगाएगी

जर्मन गैस-कदों से अब तक ख़ून की बदबू आती है
अंधी वतन-परस्ती हम को उस रस्ते ले जाएगी

अंधे कुएँ में झूठ की नाव तेज़ चली थी मान लिया
लेकिन बाहर रौशन दुनिया तुम से सच बुलवाएगी

नफ़रत में जो पले-बढ़े हैं नफ़रत में जो खेले हैं
नफ़रत देखो आगे आगे उन से क्या करवाएगी

फ़नकारों से पूछ रहे हो क्यों लौटाए हैं सम्मान
पूछो कितने चुप बैठे हैं शर्म उन्हें कब आएगी

ये मत खाओ वो मत पहनो इश्क़ तो बिल्कुल करना मत
देशद्रोह की छाप तुम्हारे ऊपर भी लग जाएगी

ये मत भूलो अगली नस्लें रौशन शो'ला होती हैं
आग कुरेदोगे चिंगारी दामन तक तो आएगी

2-नज़्म 

गर टूट गए तो हार गए

जब मेरे वतन की गलियों में 

ज़ुल्मत ने पँख पसारे थे 

और रात के काले बादल ने 

हर शहर में डेरा डाला था 

जब बस्ती बस्ती दहक उठी 

यूँ लगता था सब राख हुआ 

यूँ लगता था महशर है बपा 

और रात के ज़ालिम साए से 

बचने का कोई यारा भी न था 

सदियों में तराशा था जिस को 

इंसान के अनथक हाथों ने 

तहज़ीब के इस गहवारे में 

हर फूल दहकता शो'ला था 

जब नाम ख़ुद ईंधन की तरह 

भट्टी में जलाया जाने लगा 

और नेक ख़ुदा के सब बंदे 

मरदूद-ए-हरम ठहराए गए 

जब ख़ून की होली रस्म बनी 

और मक़्तल-गाहें आम हुईं 

बरबरियत वहशत फ़न ठहरी 

इस फ़न की बज़्में आम हुईं 

जब शौहर बेटे भाई पिदर 

सब नाम-ए-ख़ुदा के काम आए 

आवाज़ थी इक इंसान की भी 

इस शोर के बीहड़ जंगल में 

जो मिटने को तय्यार न थी 

जो ज़ेहनों को गरमाती रही 

जो छलनी जिस्म से कहती रही 

उठ हाथ बढ़ा हाथों को पकड़ 

लाखों हैं यहाँ तेरे जैसे 

इस जंग को जारी रखना है 

गर टूट गए तो हार गए 

3-नज़्म 

शिद्दत पसंद 

मुझे यक़ीं था कि मज़हबों से 

कोई भी रिश्ता नहीं है इन का 

मुझे यक़ीं था कि इन का मज़हब 

है नफ़रतों की हदों के अंदर 

मुझे यक़ीं था वो ला-मज़हब हैं 

या उन के मज़हब का नाम हरगिज़ 

सिवाए शिद्दत के कुछ नहीं है 

मगर ऐ हमदम 

यक़ीं तुम्हारा जो डगमगाया 

तो कितने इंसाँ जो हम-वतन थे 

जो हम-सफ़र थे 

जो हम-नशीं थे 

वो ठहरे दुश्मन 

तलाश-ए-दुश्मन जो शर्त ठहरी 

तो भूल बैठे 

कि मज़हबों से 

कोई भी रिश्ता नहीं है इन का 

कि जिस को ता'ना दिया था तुम ने 

कि उस के मज़हब की कोख क़ातिल उगल रही है 

वो माँ कि जिस का जवान बेटा 

तुम्हारे वहम-ओ-गुमाँ की आँधी में गुम हुआ है 

तुम्हारे बदले की आग जिस को निगल गई है 

वो देखो अब तक बिलक रही है 

वो मुंतज़िर है 

कोई तो काँधे पे हाथ रक्खे 

कहे कि हम ने भी क़ातिलों की कहानियों पर 

यक़ीं किया था 

कहे कि हम ने गुनाह किया था 

कहे कि माँ हम को मुआ'फ़ कर दो 

कहे कि माँ हम को मुआ'फ़ कर दो 

4-नज़्म 


लो मैं ने क़लम को धो डाला 

लो मेरी ज़बाँ पर ताला है 

लो मैं ने आँखें बंद कर लीं 

लो परचम सारे बाँध लिए 

नारों को गले में घोंट दिया 

एहसास के ताने-बाने को 

फिर मैं ने हवाले दार किया 

इस दिल की कसक को मान लिया 

एक आख़िरी बोसा देना है 

और अपने लरज़ते हाथों से 

ख़ंजर के हवाले करना है 

लो मैं ने क़लम को धो डाला 

लो मेरी ज़बाँ पर ताला है 

इल्ज़ाम ये आयद था मुझ पर 

हर लफ़्ज़ मिरा एक नश्तर है 

जो कुछ भी लिखा जो कुछ भी कहा 

वो देश-विरोधी बातें थीं 

और हुक्म किया था ये सादिर 

तहज़ीब के इस गहवारे को 

जो मेरी नज़र से देखेगा 

वो इक मुल्ज़िम कहलाएगा 

लो मैं ने क़लम को धो डाला 

लो मेरी ज़बाँ पर ताला है 

जो इश्क़ के नग़्मे गाएगा 

जो प्यार की बानी बोलेगा 

जो बात कहेगा गीतों में 

जो आग बुझाने उट्ठेगा 

जो हाथ झटक दे क़ातिल का 

वो इक मुजरिम कहलाएगा 

लो मैं ने क़लम को धो डाला 

लो मेरी ज़बाँ पर ताला है 

ख़ामोश हूँ मैं सन्नाटा है 

क्यों सहमे सहमे लगते हो 

हर एक ज़बाँ पर ताला है 

क्यों सहमे सहमे लगते हो 

लो मैं ने क़लम को धो डाला 

लो मेरी ज़बाँ पर ताला है 

हाँ सन्नाटे की गूँज सुनो 

हैं लफ़्ज़ वही अंदाज़ वही 

हर ज़ालिम जाबिर हर क़ातिल 

इस सन्नाटे की ज़द पर है 

ख़ामोशी को ख़ामोश करो 

ये बात तुम्हारे बस में नहीं 

ख़ामोशी तो ख़ामोशी है 

गर फैल गई तो फैल गई 

निष्कर्ष

गौहर रज़ा एक ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व हैं जिन्होंने अपने जीवन में विज्ञान, साहित्य और सामाजिक कार्यों के माध्यम से समाज को एक नई दिशा देने का प्रयास किया है। उनकी रचनाएँ, शोध और फिल्में समाज के हर वर्ग को प्रेरित करती हैं और उन्हें समर्पित कार्यकर्ता और विचारक के रूप में स्थापित करती हैं।ये भी पढ़ें 

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