अल्लामा इकबाल की ज़िंदगी और फ़लसफ़ा

अल्लामा इकबाल की ज़िंदगी और फ़लसफ़ा

अल्लामा मुहम्मद इक़बाल (1877-1938) एक ऐसे फ़लसफ़ी (दार्शनिक), शायर (कवि) और मुफक्किर (विचारक) थे जिनकी तख़लीक़ात (रचनाओं) ने सिर्फ़ पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि पूरी मुस्लिम दुनिया में तहलका मचा दिया। उन्हें "शायर-ए-मशरिक़" (पूरब का कवि) के नाम से जाना जाता है और वह पाकिस्तान के फ़िक्री बानी (वैचारिक संस्थापक) माने जाते हैं। उनका पैग़ाम (संदेश), उनकी शायरी और उनके ख़यालात (विचार) आज भी पूरे आलमी सतह (वैश्विक स्तर) पर मक़बूल (प्रसिद्ध) हैं।


आग़ाज़-ए-हयात

इक़बाल का जनम 9 नवम्बर 1877 को सियालकोट, पंजाब में हुआ। उनका खानदान कश्मीरी ब्राह्मण था जो इस्लाम क़ुबूल (स्वीकार) करने के बाद यहां आया था। बचपन से ही इक़बाल की तालीम  (शिक्षा) में ख़ास दिलचस्पी रही। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद और मौलवी सैयद मीर हसन जैसे उस्तादों से इस्लामी औरमुआशरती  (सामाजिक) तालीम हासिल की। उन्होंने सरकारी कॉलेज लाहौर से अपनी तालीम मुकम्मल की और वहां प्रोफेसर सर थॉमस अर्नोल्ड की निगरानी में फ़लसफ़ा पढ़ा, जिन्होंने उनकी फ़िक्री तरबियत (वैचारिक प्रशिक्षण) में अहम किरदार (महत्वपूर्ण भूमिका) अदा किया।

आला तालीम और यूरोप का सफ़र  (उच्च शिक्षा और यूरोप यात्रा)

1905 में इक़बाल ने यूरोप का सफ़र किया और कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से ऊंची तालीम हासिल की। इसके बाद, उन्होंने म्यूनिख यूनिवर्सिटी से "The Development of Metaphysics in Persia" पर P.hd की डिग्री हासिल की। यूरोप में अपने क़याम  (ठहराव) के दौरान, उन्होंने मौजूदा सियासी (राजनीतिक) और मुआशरती हालात (सामाजिक स्थिति) का गहराई से जायज़ा लिया और पश्चिमी तहज़ीब (संस्कृति) की तरक़्क़ी और इस्लामी आलम की पसमांदगी (पिछड़ापन) के बीच फ़र्क़ देखा। ये दौर उनके फ़िक्री सफ़र (वैचारिक यात्रा) में एक नये मोड़ का बाइस (कारण) बना।

शायरी और फलसफ़ा

इक़बाल की शायरी फ़क़त ज़ौक़-ओ-शौक़  (शौक और रुचि तक महदूद (सीमित) नहीं रही बल्कि उन्होंने अपनी शायरी के ज़रिये एक ऐसा फलसफ़ा पेश किया जो मुसलमानों के लिए नया जज़्बा (उत्साह) और सोच पैदा कर सके। उनकी शायरी का मक़सद (उद्देश्य) इंसान की "ख़ुदी" (आत्म-सम्मान) को पहचानना और उसे तरक़्क़ी (प्रगति) की राह पर चलाना था।

उनकी सबसे मशहूर तख़लीक़ात  (रचनाओं) में असरार-ए-ख़ुदी (1915) शामिल है जिसमें उन्होंने इंसानी ज़ात (मानव जाति) की अस्ल हक़ीक़त (वास्तविकता) और इस्लामी नज़रिये को बयान किया। रुमूज़-ए-बे-ख़ुदी (1917) में उन्होंने इस्लामी तहज़ीब (संस्कृति) और समाजी उसूलों (सामाजिक सिद्धांतों) को बयान किया। इसके अलावा, पयाम-ए-मशरिक़ (1924) में उन्होंने ग़ौथे की दीवान-ए-शरक़ी का जवाब पेश किया।

उनकी उर्दू शायरी में बांग-ए-दरा (1924), बाल-ए-जिब्रील (1935), और जर्ब-ए-कलीम (1936) जैसी किताबें शामिल हैं जिनमें मुसलमानों के जज़्बे और ताक़त को बढ़ाने की बातें की गईं। अर्मुग़ान-ए-हिजाज़ (1938) उनकी आख़िरी तख़लीक़ थी जो उनकी रूहानी सोच और इस्लामी क़द्र-ओ-क़ीमत को बयान करती है।

शायर-ए-मशरिक़ (पूरब का कवि)

अल्लामा इक़बाल को "शायर-ए-मशरिक़" के नाम से जाना जाता है। उनकी शायरी ने ना सिर्फ़ पाकिस्तान बल्कि पूरे आलमी सतह (वैश्विक स्तर) पर इस्लामी तजद्दुद (पुनरुत्थान) का एक नया दौर शुरू किया। कौमों की गुलामी और पश्चिमी ताक़तों की हुकूमत के ख़िलाफ़ उनकी आवाज़ मुसलमानों के लिए एक नई रौशनी लेकर आई।

क़ौमी यूनिवर्सिटी के वाइस-चांसलर डॉक्टर मसूम यासिनज़ई ने एक सेमिनार में कहा, "इक़बाल सिर्फ़ मशरिक़ के शायर नहीं बल्कि एक आलमी शायर हैं। उनकी शायरी तमाम इंसानियत के लिए है।" उन्होंने ग़ौथे जैसे मशरिक़ी आइकन को अपना दिवान मंसूब किया और उनके साथ बराबरी की बुनियाद पर मशरिक़ की आवाज़ बनकर पेश आए।

इरान में मक़बूलियत (प्रसिद्धि)

इरान में इक़बाल को "इक़बाल-ए-लाहोरी" के नाम से जाना जाता है। उनकी फ़ारसी तख़लीक़ात (रचनाएँ) असरार-ए-ख़ुदी और बाल-ए-जिब्रील को यहां बड़ी मक़बूलियत  (प्रसिद्धि) हासिल है। इरानी इंक़लाब (क्रांति) के दौरान उनकी शायरी को कसरत से पढ़ा और सुना गया, और आज भी इरान में उनकी शायरी का ज़बरदस्त असर मौजूद है। आयतुल्लाह अली ख़ामेनई ने इक़बाल की शायरी को "इरानी तहरीक़ (आंदोलन) के बुनियादी फ़लसफ़े" से जोड़ते हुए कहा कि "हम ठीक वही रास्ता इख़्तियार कर रहे हैं जो इक़बाल ने हमें दिखाया।"

तुर्की और अरब ममालिक में असर  (प्रभाव)

तुर्की के क़ौमी शायर मेहमत आक़िफ़ एर्सॉय भी इक़बाल से मुतास्सिर हुए। 2016 में तुर्की के वज़ीर-ए-सक़ाफ़त ने इक़बाल के पोते वलीद इक़बाल को "दोस्त अवार्ड" पेश किया, जो उनकी इस्लाम के लिए ख़िदमात के एतराफ़ में था। अरब ममालिक में भी इक़बाल की शायरी मक़बूल है। मिस्र में उनकी एक नज़्म को मशहूर ग़ज़ल गायिका उम्मे कुल्सूम ने गाया।

पश्चिमी दुनिया में मक़बूलियत  (प्रसिद्धि)

इक़बाल के फलसफ़े और पश्चिमी तहज़ीब पर उनके नज़रिये को पश्चिमी दुनिया में भी मक़बूलियत हासिल हुई। अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जज विलियम ओ. डगलस ने इक़बाल के पैग़ाम को "आलमी मक़बूलियत" करार दिया। हालांकि, कुछ तन्क़ीदकारों ने इक़बाल के पश्चिम पर नज़रिये को सियासी इस्तेहसाल की नज़र से देखा और कहा कि वह पश्चिमी तहज़ीब के फ़वाइद को मुकम्मल तौर पर नहीं समझ पाए। बावजूद इसके, इक़बाल का फलसफ़ा इंसानियत, जिहद, और रूहानी क़द्रों को ज़िंदा रखने पर जोर देता है।

विरासत और तहसीन (प्रशंसा)

इक़बाल की विरासत पाकिस्तान और दुनिया भर में ज़िंदा है। पाकिस्तान में उन्हें "क़ौमी शायर" (राष्ट्रीय कवि) का दर्जा दिया गया है और उनकी याद में कई इदारे (संस्थान), सड़कों और तालीमी इदारों के नाम रखे गए हैं, जैसे कि आलामा इक़बाल कैंपस, पंजाब यूनिवर्सिटी, आलामा इक़बाल मेडिकल कॉलेज, इक़बाल स्टेडियम, और आलामा इक़बाल इंटरनेशनल एयरपोर्ट।

भारत में उनकी नज़्म "तराना-ए-हिन्द" आज भी एक क़ौमी हम-आहंगी का पैग़ाम (राष्ट्रीय एकता) है। वहां के हुकूमत ने इक़बाल समन के नाम से एक अवार्ड मुनअक़िद (आयोजित) किया है, जो हर साल उर्दू अदब (साहित्य) के आला मुफक्किरों (विचारकों) और शायरों को दिया जाता है।

अलावा-अज़ीं (इसके अतिरिक्त), पाकिस्तान हुकूमत और तंज़ीमों ने इक़बाल की तालीम (शिक्षा) और अदब को आगे बढ़ाने के लिए कई इदारे क़ायम (स्थापित) किए हैं, जैसे कि इक़बाल अकेडमी पाकिस्तान। उनकी याद में सिक्के, स्टैम्प्स और तालीमी इदारे क़ायम किए गए हैं ताकि उनकी शायरी और फलसफ़े को नई नस्लों तक पहुंचाया जा सके।

अल्लामा इक़बाल की शायरी,ग़ज़लें,नज़्मे,चुनिंदा शेर 


1-ग़ज़ल 

जुगनू की रौशनी है काशाना-ए-चमन में
या शम्अ' जल रही है फूलों की अंजुमन में

आया है आसमाँ से उड़ कर कोई सितारा
या जान पड़ गई है महताब की किरन में

या शब की सल्तनत में दिन का सफ़ीर आया
ग़ुर्बत में आ के चमका गुमनाम था वतन में

तक्मा कोई गिरा है महताब की क़बा का
ज़र्रा है या नुमायाँ सूरज के पैरहन में

हुस्न-ए-क़दीम की इक पोशीदा ये झलक थी
ले आई जिस को क़ुदरत ख़ल्वत से अंजुमन में

छोटे से चाँद में है ज़ुल्मत भी रौशनी भी
निकला कभी गहन से आया कभी गहन में

2-ग़ज़ल 

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं

अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं


तही ज़िंदगी से नहीं ये फ़ज़ाएँ

यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं


क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर

चमन और भी आशियाँ और भी हैं


अगर खो गया इक नशेमन तो क्या ग़म

मक़ामात-ए-आह-ओ-फ़ुग़ाँ और भी हैं


तू शाहीन है परवाज़ है काम तेरा

तिरे सामने आसमाँ और भी हैं


इसी रोज़ ओ शब में उलझ कर न रह जा

कि तेरे ज़मान ओ मकाँ और भी हैं


गए दिन कि तन्हा था मैं अंजुमन में

यहाँ अब मिरे राज़-दाँ और भी हैं


3-ग़ज़ल 

हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
यही रहा है अज़ल से क़लंदरों का तरीक़

हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में
फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़

इलाज-ए-ज़ोफ़-ए-यक़ीं इन से हो नहीं सकता
ग़रीब अगरचे हैं 'राज़ी' के नुक्ता-हाए-दक़ीक़

मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़

उसी तिलिस्म-ए-कुहन में असीर है आदम
बग़ल में उस की हैं अब तक बुतान-ए-अहद-ए-अतीक़

मिरे लिए तो है इक़रार-ए-बिल-लिसाँ भी बहुत
हज़ार शुक्र कि मुल्ला हैं साहिब-ए-तसदीक़

अगर हो इश्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी
न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर ओ ज़िंदीक़


4-ग़ज़ल 

हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही

तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर
नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही

कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी
ये बे-सवादी ये कम-निगाही

दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी
या राहेबी कर या पादशाही

पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने
किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही

5-ग़ज़ल 


हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
यही रहा है अज़ल से क़लंदरों का तरीक़

हुजूम क्यूँ है ज़ियादा शराब-ख़ाने में
फ़क़त ये बात कि पीर-ए-मुग़ाँ है मर्द-ए-ख़लीक़

इलाज-ए-ज़ोफ़-ए-यक़ीं इन से हो नहीं सकता
ग़रीब अगरचे हैं 'राज़ी' के नुक्ता-हाए-दक़ीक़

मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
ख़ुदा करे कि मिले शैख़ को भी ये तौफ़ीक़

उसी तिलिस्म-ए-कुहन में असीर है आदम
बग़ल में उस की हैं अब तक बुतान-ए-अहद-ए-अतीक़

मिरे लिए तो है इक़रार-ए-बिल-लिसाँ भी बहुत
हज़ार शुक्र कि मुल्ला हैं साहिब-ए-तसदीक़

अगर हो इश्क़ तो है कुफ़्र भी मुसलमानी
न हो तो मर्द-ए-मुसलमाँ भी काफ़िर ओ ज़िंदीक़


6-ग़ज़ल 


हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही

तू मर्द-ए-मैदाँ तू मीर-ए-लश्कर
नूरी हुज़ूरी तेरे सिपाही

कुछ क़द्र अपनी तू ने न जानी
ये बे-सवादी ये कम-निगाही

दुनिया-ए-दूँ की कब तक ग़ुलामी
या राहेबी कर या पादशाही

पीर-ए-हरम को देखा है मैं ने
किरदार-ए-बे-सोज़ गुफ़्तार वाही


1-नज़्म 

तराना-ए-हिन्द

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा 

हम बुलबुलें हैं इस की ये गुलसिताँ हमारा 

ग़ुर्बत में हों अगर हम रहता है दिल वतन में 

समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा 

पर्बत वो सब से ऊँचा हम-साया आसमाँ का 

वो संतरी हमारा वो पासबाँ हमारा 

गोदी में खेलती हैं इस की हज़ारों नदियाँ 

गुलशन है जिन के दम से रश्क-ए-जिनाँ हमारा 

ऐ आब-रूद-ए-गंगा वो दिन है याद तुझ को 

उतरा तिरे किनारे जब कारवाँ हमारा 

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना 

हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा 

यूनान ओ मिस्र ओ रूमा सब मिट गए जहाँ से 

अब तक मगर है बाक़ी नाम-ओ-निशाँ हमारा 

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी 

सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़माँ हमारा 

'इक़बाल' कोई महरम अपना नहीं जहाँ में 

मालूम क्या किसी को दर्द-ए-निहाँ हमारा 

2-नज़्म 

बच्चे की दुआ 

लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी 

ज़िंदगी शम्अ की सूरत हो ख़ुदाया मेरी

दूर दुनिया का मिरे दम से अँधेरा हो जाए 

हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए

हो मिरे दम से यूँही मेरे वतन की ज़ीनत 

जिस तरह फूल से होती है चमन की ज़ीनत 

ज़िंदगी हो मिरी परवाने की सूरत या-रब 

इल्म की शम्अ से हो मुझ को मोहब्बत या-रब 

हो मिरा काम ग़रीबों की हिमायत करना 

दर्द-मंदों से ज़ईफ़ों से मोहब्बत करना 

मिरे अल्लाह! बुराई से बचाना मुझ को 

नेक जो राह हो उस रह पे चलाना मुझ को 


3-नज़्म 


क्यूँ ज़ियाँ-कार बनूँ सूद-फ़रामोश रहूँ 

फ़िक्र-ए-फ़र्दा न करूँ महव-ए-ग़म-ए-दोश रहूँ 

नाले बुलबुल के सुनूँ और हमा-तन गोश रहूँ 

हम-नवा मैं भी कोई गुल हूँ कि ख़ामोश रहूँ 

जुरअत-आमोज़ मिरी ताब-ए-सुख़न है मुझ को 

शिकवा अल्लाह से ख़ाकम-ब-दहन है मुझ को 

है बजा शेवा-ए-तस्लीम में मशहूर हैं हम 

क़िस्सा-ए-दर्द सुनाते हैं कि मजबूर हैं हम 

साज़ ख़ामोश हैं फ़रियाद से मामूर हैं हम 

नाला आता है अगर लब पे तो मा'ज़ूर हैं हम 

ऐ ख़ुदा शिकवा-ए-अर्बाब-ए-वफ़ा भी सुन ले 

ख़ूगर-ए-हम्द से थोड़ा सा गिला भी सुन ले 

थी तो मौजूद अज़ल से ही तिरी ज़ात-ए-क़दीम 

फूल था ज़ेब-ए-चमन पर न परेशाँ थी शमीम 

शर्त इंसाफ़ है ऐ साहिब-ए-अल्ताफ़-ए-अमीम 

बू-ए-गुल फैलती किस तरह जो होती न नसीम 

हम को जमईयत-ए-ख़ातिर ये परेशानी थी 

वर्ना उम्मत तिरे महबूब की दीवानी थी 

हम से पहले था अजब तेरे जहाँ का मंज़र 

कहीं मस्जूद थे पत्थर कहीं मा'बूद शजर 

ख़ूगर-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसाँ की नज़र 

मानता फिर कोई अन-देखे ख़ुदा को क्यूँकर 

तुझ को मालूम है लेता था कोई नाम तिरा 

क़ुव्वत-ए-बाज़ू-ए-मुस्लिम ने किया काम तिरा 

बस रहे थे यहीं सल्जूक़ भी तूरानी भी 

अहल-ए-चीं चीन में ईरान में सासानी भी 

इसी मामूरे में आबाद थे यूनानी भी 

इसी दुनिया में यहूदी भी थे नसरानी भी 

पर तिरे नाम पे तलवार उठाई किस ने 

बात जो बिगड़ी हुई थी वो बनाई किस ने 

थे हमीं एक तिरे मारका-आराओं में 

ख़ुश्कियों में कभी लड़ते कभी दरियाओं में 

दीं अज़ानें कभी यूरोप के कलीसाओं में 

कभी अफ़्रीक़ा के तपते हुए सहराओं में 

शान आँखों में न जचती थी जहाँ-दारों की 

कलमा पढ़ते थे हमीं छाँव में तलवारों की 

हम जो जीते थे तो जंगों की मुसीबत के लिए 

और मरते थे तिरे नाम की अज़्मत के लिए 

थी न कुछ तेग़ज़नी अपनी हुकूमत के लिए 

सर-ब-कफ़ फिरते थे क्या दहर में दौलत के लिए 

क़ौम अपनी जो ज़र-ओ-माल-ए-जहाँ पर मरती 

बुत-फ़रोशीं के एवज़ बुत-शिकनी क्यूँ करती 

टल न सकते थे अगर जंग में अड़ जाते थे 

पाँव शेरों के भी मैदाँ से उखड़ जाते थे 

तुझ से सरकश हुआ कोई तो बिगड़ जाते थे 

तेग़ क्या चीज़ है हम तोप से लड़ जाते थे 

नक़्श-ए-तौहीद का हर दिल पे बिठाया हम ने 

ज़ेर-ए-ख़ंजर भी ये पैग़ाम सुनाया हम ने 

तू ही कह दे कि उखाड़ा दर-ए-ख़ैबर किस ने 

शहर क़ैसर का जो था उस को किया सर किस ने 

तोड़े मख़्लूक़ ख़ुदावंदों के पैकर किस ने 

काट कर रख दिए कुफ़्फ़ार के लश्कर किस ने 

किस ने ठंडा किया आतिश-कदा-ए-ईराँ को 

किस ने फिर ज़िंदा किया तज़्किरा-ए-यज़्दाँ को 

कौन सी क़ौम फ़क़त तेरी तलबगार हुई 

और तेरे लिए ज़हमत-कश-ए-पैकार हुई 

किस की शमशीर जहाँगीर जहाँ-दार हुई 

किस की तकबीर से दुनिया तिरी बेदार हुई 

किस की हैबत से सनम सहमे हुए रहते थे 

मुँह के बल गिर के हू-अल्लाहू-अहद कहते थे 

आ गया ऐन लड़ाई में अगर वक़्त-ए-नमाज़ 

क़िबला-रू हो के ज़मीं-बोस हुई क़ौम-ए-हिजाज़ 

एक ही सफ़ में खड़े हो गए महमूद ओ अयाज़ 

न कोई बंदा रहा और न कोई बंदा-नवाज़ 

बंदा ओ साहब ओ मोहताज ओ ग़नी एक हुए 

तेरी सरकार में पहुँचे तो सभी एक हुए 

महफ़िल-ए-कौन-ओ-मकाँ में सहर ओ शाम फिरे 

मय-ए-तौहीद को ले कर सिफ़त-ए-जाम फिरे 

कोह में दश्त में ले कर तिरा पैग़ाम फिरे 

और मालूम है तुझ को कभी नाकाम फिरे 

दश्त तो दश्त हैं दरिया भी न छोड़े हम ने 

बहर-ए-ज़ुल्मात में दौड़ा दिए घोड़े हम ने 

सफ़्हा-ए-दहर से बातिल को मिटाया हम ने 

नौ-ए-इंसाँ को ग़ुलामी से छुड़ाया हम ने 

तेरे का'बे को जबीनों से बसाया हम ने 

तेरे क़ुरआन को सीनों से लगाया हम ने 

फिर भी हम से ये गिला है कि वफ़ादार नहीं 

हम वफ़ादार नहीं तू भी तो दिलदार नहीं 

उम्मतें और भी हैं उन में गुनहगार भी हैं 

इज्ज़ वाले भी हैं मस्त-ए-मय-ए-पिंदार भी हैं 

उन में काहिल भी हैं ग़ाफ़िल भी हैं हुश्यार भी हैं 

सैकड़ों हैं कि तिरे नाम से बे-ज़ार भी हैं 

रहमतें हैं तिरी अग़्यार के काशानों पर 

बर्क़ गिरती है तो बेचारे मुसलमानों पर 

बुत सनम-ख़ानों में कहते हैं मुसलमान गए 

है ख़ुशी उन को कि का'बे के निगहबान गए 

मंज़िल-ए-दहर से ऊँटों के हुदी-ख़्वान गए 

अपनी बग़लों में दबाए हुए क़ुरआन गए 

ख़ंदा-ज़न कुफ़्र है एहसास तुझे है कि नहीं 

अपनी तौहीद का कुछ पास तुझे है कि नहीं 

ये शिकायत नहीं हैं उन के ख़ज़ाने मामूर 

नहीं महफ़िल में जिन्हें बात भी करने का शुऊ'र 

क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर 

और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर 

अब वो अल्ताफ़ नहीं हम पे इनायात नहीं 

बात ये क्या है कि पहली सी मुदारात नहीं 

क्यूँ मुसलमानों में है दौलत-ए-दुनिया नायाब 

तेरी क़ुदरत तो है वो जिस की न हद है न हिसाब 

तू जो चाहे तो उठे सीना-ए-सहरा से हबाब 

रह-रव-ए-दश्त हो सैली-ज़दा-ए-मौज-ए-सराब 

तान-ए-अग़्यार है रुस्वाई है नादारी है 

क्या तिरे नाम पे मरने का एवज़ ख़्वारी है 

बनी अग़्यार की अब चाहने वाली दुनिया 

रह गई अपने लिए एक ख़याली दुनिया 

हम तो रुख़्सत हुए औरों ने सँभाली दुनिया 

फिर न कहना हुई तौहीद से ख़ाली दुनिया 

हम तो जीते हैं कि दुनिया में तिरा नाम रहे 

कहीं मुमकिन है कि साक़ी न रहे जाम रहे 

तेरी महफ़िल भी गई चाहने वाले भी गए 

शब की आहें भी गईं सुब्ह के नाले भी गए 

दिल तुझे दे भी गए अपना सिला ले भी गए 

आ के बैठे भी न थे और निकाले भी गए 

आए उश्शाक़ गए वादा-ए-फ़र्दा ले कर 

अब उन्हें ढूँड चराग़-ए-रुख़-ए-ज़ेबा ले कर 

दर्द-ए-लैला भी वही क़ैस का पहलू भी वही 

नज्द के दश्त ओ जबल में रम-ए-आहू भी वही 

इश्क़ का दिल भी वही हुस्न का जादू भी वही 

उम्मत-ए-अहमद-ए-मुर्सिल भी वही तू भी वही 

फिर ये आज़ुर्दगी-ए-ग़ैर सबब क्या मा'नी 

अपने शैदाओं पे ये चश्म-ए-ग़ज़ब क्या मा'नी 

तुझ को छोड़ा कि रसूल-ए-अरबी को छोड़ा 

बुत-गरी पेशा किया बुत-शिकनी को छोड़ा 

इश्क़ को इश्क़ की आशुफ़्ता-सरी को छोड़ा 

रस्म-ए-सलमान ओ उवैस-ए-क़रनी को छोड़ा 

आग तकबीर की सीनों में दबी रखते हैं 

ज़िंदगी मिस्ल-ए-बिलाल-ए-हबशी रखते हैं 

इश्क़ की ख़ैर वो पहली सी अदा भी न सही 

जादा-पैमाई-ए-तस्लीम-ओ-रज़ा भी न सही 

मुज़्तरिब दिल सिफ़त-ए-क़िबला-नुमा भी न सही 

और पाबंदी-ए-आईन-ए-वफ़ा भी न सही 

कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है 

बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है 

सर-ए-फ़ाराँ पे किया दीन को कामिल तू ने 

इक इशारे में हज़ारों के लिए दिल तू ने 

आतिश-अंदोज़ किया इश्क़ का हासिल तू ने 

फूँक दी गर्मी-ए-रुख़्सार से महफ़िल तू ने 

आज क्यूँ सीने हमारे शरर-आबाद नहीं 

हम वही सोख़्ता-सामाँ हैं तुझे याद नहीं 

वादी-ए-नज्द में वो शोर-ए-सलासिल न रहा 

क़ैस दीवाना-ए-नज़्ज़ारा-ए-महमिल न रहा 

हौसले वो न रहे हम न रहे दिल न रहा 

घर ये उजड़ा है कि तू रौनक़-ए-महफ़िल न रहा 

ऐ ख़ुशा आँ रोज़ कि आई ओ ब-सद नाज़ आई 

बे-हिजाबाना सू-ए-महफ़िल-ए-मा बाज़ आई 

बादा-कश ग़ैर हैं गुलशन में लब-ए-जू बैठे 

सुनते हैं जाम-ब-कफ़ नग़्मा-ए-कू-कू बैठे 

दौर हंगामा-ए-गुलज़ार से यकसू बैठे 

तेरे दीवाने भी हैं मुंतज़िर-ए-हू बैठे 

अपने परवानों को फिर ज़ौक़-ए-ख़ुद-अफ़रोज़ी दे 

बर्क़-ए-देरीना को फ़रमान-ए-जिगर-सोज़ी दे 

क़ौम-ए-आवारा इनाँ-ताब है फिर सू-ए-हिजाज़ 

ले उड़ा बुलबुल-ए-बे-पर को मज़ाक़-ए-परवाज़ 

मुज़्तरिब-बाग़ के हर ग़ुंचे में है बू-ए-नियाज़ 

तू ज़रा छेड़ तो दे तिश्ना-ए-मिज़राब है साज़ 

नग़्मे बेताब हैं तारों से निकलने के लिए 

तूर मुज़्तर है उसी आग में जलने के लिए 

मुश्किलें उम्मत-ए-मरहूम की आसाँ कर दे 

मोर-ए-बे-माया को हम-दोश-ए-सुलेमाँ कर दे 

जिंस-ए-नायाब-ए-मोहब्बत को फिर अर्ज़ां कर दे 

हिन्द के दैर-नशीनों को मुसलमाँ कर दे 

जू-ए-ख़ूँ मी चकद अज़ हसरत-ए-दैरीना-ए-मा 

मी तपद नाला ब-निश्तर कद-ए-सीना-ए-मा 

बू-ए-गुल ले गई बैरून-ए-चमन राज़-ए-चमन 

क्या क़यामत है कि ख़ुद फूल हैं ग़म्माज़-ए-चमन 

अहद-ए-गुल ख़त्म हुआ टूट गया साज़-ए-चमन 

उड़ गए डालियों से ज़मज़मा-पर्दाज़-ए-चमन 

एक बुलबुल है कि महव-ए-तरन्नुम अब तक 

उस के सीने में है नग़्मों का तलातुम अब तक 

क़ुमरियाँ शाख़-ए-सनोबर से गुरेज़ाँ भी हुईं 

पत्तियाँ फूल की झड़ झड़ के परेशाँ भी हुईं 

वो पुरानी रौशें बाग़ की वीराँ भी हुईं 

डालियाँ पैरहन-ए-बर्ग से उर्यां भी हुईं 

क़ैद-ए-मौसम से तबीअत रही आज़ाद उस की 

काश गुलशन में समझता कोई फ़रियाद उस की 

लुत्फ़ मरने में है बाक़ी न मज़ा जीने में 

कुछ मज़ा है तो यही ख़ून-ए-जिगर पीने में 

कितने बेताब हैं जौहर मिरे आईने में 

किस क़दर जल्वे तड़पते हैं मिरे सीने में 

इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं 

दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं 

चाक इस बुलबुल-ए-तन्हा की नवा से दिल हों 

जागने वाले इसी बाँग-ए-दरा से दिल हों 

या'नी फिर ज़िंदा नए अहद-ए-वफ़ा से दिल हों 

फिर इसी बादा-ए-दैरीना के प्यासे दिल हों 

अजमी ख़ुम है तो क्या मय तो हिजाज़ी है मिरी 

नग़्मा हिन्दी है तो क्या लय तो हिजाज़ी है मिरी 

तब्सरा 

अल्लामा इक़बाल ने अपनी पूरी ज़िंदगी और शायरी के ज़रिये एक ऐसा अमर पैग़ाम दिया है जो आज भी दिलों और दिमाग़ों में जिंदा है। उनकी शायरी इंसानियत, ख़ुदी, और इस्लामिक फलसफ़े की गहराई में उतरकर लोगों को जागरूक करने का ज़रिया बनी। इक़बाल ने अपनी शायरी के माध्यम से सिर्फ़ मशरिक़ी तहज़ीब और संस्कृति की बुलंदी नहीं की बल्कि उन्होंने इसे एक वैश्विक नज़रिये से पेश किया। उनके ख्यालात ने न सिर्फ़ मुसलमानों बल्कि दुनिया भर के लोगों को मुतास्सिर किया।

इक़बाल को ‘मुफक्किर-ए-पाकिस्तान’ और ‘शायर-ए-मशरिक़’ के ख़िताब से नवाज़ा गया, क्योंकि उनकी शायरी ने उस दौर के मुसलमानों के अंदर अपनी पहचान और अस्तित्व की तलाश की चिंगारी को हवा दी। उनकी शायरी ने इस्लाम की रूहानी और तजदीदी (पुनरुत्थान) सोच को जगाने का काम किया। वह अपनी कविताओं के ज़रिये सिर्फ़ एक कौम या मुल्क की नहीं बल्कि पूरी इंसानियत की बात करते थे। उनकी रचनाएँ 'बाल-ए-जिब्रील', 'असरार-ए-ख़ुदी', और 'रूमूज़-ए-बे-ख़ुदी' जैसे कई मशहूर कलाम आज भी साहित्य और फलसफ़े की दुनिया में मील का पत्थर मानी जाती हैं।

इक़बाल ने अपने अशआर में पश्चिमी तहज़ीब की आलोचना की लेकिन साथ ही उन्होंने पश्चिमी इल्म और टेक्नोलॉजी की तारीफ भी की। वह एक ऐसा पुल बनाने की कोशिश में थे जहाँ मशरिक़ और मगरिब की बेहतरीन चीज़ें मिलकर इंसानियत को फायदा पहुंचा सकें। उनके नज़दीक, इंसान को अपने अन्दर की ताकत को पहचानना चाहिए और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना चाहिए ताकि वह दुनिया में एक सकारात्मक और रचनात्मक भूमिका निभा सके।

अल्लामा इक़बाल का फलसफ़ा और उनकी शायरी सिर्फ़ एक दौर तक महदूद नहीं रही, बल्कि वह आज भी उसी शिद्दत के साथ लोगों को मुतास्सिर कर रही है। पाकिस्तान के अलावा ईरान, तुर्की और अरब दुनिया में भी उनकी शायरी को पढ़ा और सराहा जाता है। ईरान में उन्हें ‘इक़बाल-ए-लाहोरी’ के नाम से जाना जाता है और उनकी शायरी ने वहाँ के इंक़लाबी सोच पर भी गहरा असर डाला है।

अल्लामा इक़बाल की शख्सियत सिर्फ़ एक शायर तक सीमित नहीं थी; वह एक मुआल्लिम (शिक्षक), मुरब्बी (मार्गदर्शक), और एक फ़लसफ़ी (दार्शनिक) भी थे। उन्होंने अपने क़लाम के ज़रिये एक ऐसी रहनुमाई पेश की जो आज भी लोगों के दिलों और ज़ेहन को मुतहर्रिक करती है। उनके ख़्यालात और तालीमात का असर आने वाली नस्लों पर भी रहेगा, और उनकी याद हमेशा जिन्दा रहेगी।

उनकी शायरी और फलसफ़ा एक रहनुमा की तरह इंसानियत के हर उस मोड़ पर नज़र आता है जहाँ इंसान अपने वजूद (अस्तित्व). पहचान और मक़सद की तलाश करता है। अल्लामा इक़बाल को हमेशा एक ऐसे आलमी शायर और मुफक्किर के तौर पर याद किया जाएगा जिन्होंने मशरिक़ और मगरिब के दर्मियान (बीच) एक पुल बनाया और इंसानियत को एक बेहतर मुक़ाम तक पहुँचाने की कोशिश की।ये भी पढ़ें 


और नया पुराने