अहमद नदीम क़ासमीउर्दू साहित्य के मशहूर शायर और लेखक

 प्रारंभिक जीवन और पृष्ठभूमि

अहमद नदीम क़ासमी, जिनका असली नाम अहमद शाह अवान था, का जन्म 20 नवंबर 1916 को ब्रिटिश भारत के ज़िले ख़ुशाब के गाँव अंगाह में हुआ। उनका ताल्लुक अवान परिवार से था। उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा कैंपबेलपुर (जो अब अटक कहलाता है) से प्राप्त की और बाद में सादिक एगर्टन कॉलेज, बहावलपुर में पढ़ाई की। 1935 में उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी, लाहौर से स्नातक की डिग्री प्राप्त की। इस शिक्षा यात्रा के दौरान, उन्होंने साहित्य की दुनिया में कदम रखा और अपने जीवन को साहित्य और कला के प्रति समर्पित कर दिया।


साहित्यिक योगदान और उपलब्धियाँ

क़ासमी की साहित्यिक यात्रा कई दशकों तक चली, जिसमें उन्होंने 50 से अधिक किताबें लिखीं जिनमें कविता, कथा, आलोचना, पत्रकारिता और कला से संबंधित रचनाएँ शामिल थीं। उनकी शायरी में इंसानियत का गहरा जज़्बा झलकता है। उनके अफ़साने (कहानियाँ) गाँवों की ज़िंदगी और संस्कृति का जीवंत चित्रण करते हैं, जिनकी तुलना मुनशी प्रेमचंद से की जाती है। उनके लेखन ने आम आदमी से गहरे संबंध बनाए, जिसने उन्हें उर्दू साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया।

ग़ज़लों से लेकर आधुनिक नज़्मों तक, उनकी शायरी ने परंपरागत और आधुनिक दोनों रूपों में अपनी छाप छोड़ी। क़ासमी न केवल एक बेहतरीन शायर थे बल्कि उन्होंने परवीन शाकिर और भारतीय शायर गुलज़ार जैसे कई समकालीन कवियों का मार्गदर्शन किया। गुलज़ार ने उन्हें अपना गुरु और प्रेरणा का स्रोत माना। क़ासमी प्रोग्रेसिव राइटर्स मूवमेंट के सदस्य भी थे और 1948 में पंजाब के महासचिव चुने गए। 1949 में उन्हें पाकिस्तान के महासचिव के रूप में भी चुना गया।

संपादकीय और पत्रकारिता कार्य

साहित्यिक योगदान के अलावा, क़ासमी ने संपादक और पत्रकार के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने कई प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन किया जैसे फूल, तहज़ीब-ए-निस्वाँ, अदब-ए-लतीफ़, सवेरा और नक़ूश। लेकिन उनकी सबसे महत्वपूर्ण संपादकीय भूमिका उनकी अपनी पत्रिका फुनून में थी, जिसे उन्होंने लगभग 50 वर्षों तक प्रकाशित किया। फुनून के माध्यम से उन्होंने नए लेखकों और कवियों को एक मंच दिया और साहित्य के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को उभारा।

क़ासमी ने उर्दू दैनिक इमरोज़ के संपादक के रूप में भी कार्य किया और रवान दवान और डेली जंग जैसे राष्ट्रीय अख़बारों में दशकों तक साप्ताहिक कॉलम लिखे, जिससे उन्होंने साहित्यिक और सार्वजनिक चर्चाओं को गहराई से प्रभावित किया।

निजी जीवन और निधन

हालाँकि क़ासमी को व्यापक प्रशंसा मिली, लेकिन उनके व्यक्तित्व और उनके समकालीनों के साथ उनके रिश्ते विवादों से परे नहीं थे। प्रोफ़ेसर फ़तेह मुहम्मद मलिक ने अपनी किताब नदीम शनासी में क़ासमी की जटिलता और उनके फैज़ अहमद फैज़ के साथ रिश्तों को उजागर किया। कुछ लोग मानते थे कि क़ासमी अपने आप को अपने समकालीनों से ऊँचा समझते थे, जिससे साहित्यिक समुदाय में मतभेद उत्पन्न हुए। फिर भी, उनके साहित्यिक योगदानों को सराहा जाता है और उनकी रचनाएँ आज भी पढ़ी और अध्ययन की जाती हैं।

अहमद नदीम क़ासमी का निधन 10 जुलाई 2006 को अस्थमा की जटिलताओं के कारण लाहौर के पंजाब इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोलॉजी में हुआ। उनकी याद में इस्लामाबाद की 7वीं एवेन्यू का नाम उनके सम्मान में रखा गया।

अहमद नदीम क़ासमी की शायरी,ग़ज़लें


1-ग़ज़ल 

जब तिरा हुक्म मिला तर्क मोहब्बत कर दी
दिल मगर इस पे वो धड़का कि क़यामत कर दी

तुझ से किस तरह मैं इज़्हार-ए-तमन्ना करता
लफ़्ज़ सूझा तो मुआनि ने बग़ावत कर दी

मैं तो समझा था कि लौट आते हैं जाने वाले
तू ने जा कर तो जुदाई मिरी क़िस्मत कर दी

तुझ को पूजा है कि असनाम-परस्ती की है
मैं ने वहदत के मफ़ाहीम की कसरत कर दी

मुझ को दुश्मन के इरादों पे भी प्यार आता है
तिरी उल्फ़त ने मोहब्बत मिरी आदत कर दी

पूछ बैठा हूँ मैं तुझ से तिरे कूचे का पता
तेरे हालात ने कैसी तिरी सूरत कर दी

क्या तिरा जिस्म तिरे हुस्न की हिद्दत में जला
राख किस ने तिरी सोने की सी रंगत कर दी


2-ग़ज़ल 


तुझे खो कर भी तुझे पाऊँ जहाँ तक देखूँ
हुस्न-ए-यज़्दाँ से तुझे हुस्न-ए-बुताँ तक देखूँ

तू ने यूँ देखा है जैसे कभी देखा ही न था
मैं तो दिल में तिरे क़दमों के निशाँ तक देखूँ

सिर्फ़ इस शौक़ में पूछी हैं हज़ारों बातें
मैं तिरा हुस्न तिरे हुस्न-ए-बयाँ तक देखूँ

मेरे वीराना-ए-जाँ में तिरी यादों के तुफेल 
फूल खिलते नज़र आते हैं जहाँ तक देखूँ

वक़्त ने ज़ेहन में धुँदला दिए तेरे ख़द-ओ-ख़ाल
यूँ तो मैं टूटते तारों का धुआँ तक देखूँ

दिल गया था तो ये आँखें भी कोई ले जाता
मैं फ़क़त एक ही तस्वीर कहाँ तक देखूँ

इक हक़ीक़त सही फ़िरदौस में हूरों का वजूद
हुस्न-ए-इंसाँ से निबट लूँ तो वहाँ तक देखूँ

3-ग़ज़ल 


वो कोई और न था चंद ख़ुश्क पत्ते थे
शजर से टूट के जो फ़स्ल-ए-गुल पे रोए थे

अभी अभी तुम्हें सोचा तो कुछ न याद आया
अभी अभी तो हम इक दूसरे से बिछड़े थे

तुम्हारे बाद चमन पर जब इक नज़र डाली
कली कली में ख़िज़ाँ के चराग़ जलते थे

तमाम उम्र वफ़ा के गुनाहगार रहे
ये और बात कि हम आदमी तो अच्छे थे

शब-ए-ख़मोश को तन्हाई ने ज़बाँ दे दी
पहाड़ गूँजते थे दश्त सनसनाते थे

वो एक बार मिरे जिन को था हयात से प्यार
जो ज़िंदगी से गुरेज़ाँ थे रोज़ मरते थे

नए ख़याल अब आते हैं ढल के आहन में
हमारे दिल में कभी खेत लहलहाते थे

ये इर्तिक़ा का चलन है कि हर ज़माने में
पुराने लोग नए आदमी से डरते थे

'नदीम' जो भी मुलाक़ात थी अधूरी थी
कि एक चेहरे के पीछे हज़ार चेहरे थे

4-ग़ज़ल 


जो लोग दुश्मन-ए-जाँ थे वही सहारे थे
मुनाफ़े थे मोहब्बत में न ख़सारे थे

हुज़ूर-ए-शाह बस इतना ही अर्ज़ करना है
जो इख़्तियार तुम्हारे थे हक़ हमारे थे

ये और बात बहारें गुरेज़-पा निकलीं
गुलों के हम ने तो सदक़े बहुत उतारे थे

ख़ुदा करे कि तिरी उम्र में गिने जाएँ
वो दिन जो हम ने तिरे हिज्र में गुज़ारे थे

अब इज़्न हो तो तिरी ज़ुल्फ़ में पिरो दें फूल
कि आसमाँ के सितारे तो इश्तिआरे थे    

क़रीब आए तो हर गुल था ख़ाना-ए-ज़ंबूर
'नदीम' दूर के मंज़र तो प्यारे प्यारे थे

5-ग़ज़ल 


कौन कहता है कि मौत आई तो मर जाऊँगा
मैं तो दरिया हूँ समंदर  में उतर जाऊँगा   

तेरा दर छोड़ के मैं और किधर जाऊँगा
घर में घिर जाऊँगा सहरा में बिखर जाऊँगा

तेरे पहलू से जो उठूँगा  तो मुश्किल ये है    
सिर्फ़ इक शख़्स को पाऊँगा जिधर जाऊँगा

अब तिरे शहर में आऊँगा मुसाफ़िर की तरह
साया-ए-अब्र की मानिंद गुज़र जाऊँगा

तेरा पैमान-ए-वफ़ा राह की दीवार बना
वर्ना सोचा था कि जब चाहूँगा मर जाऊँगा

चारासाज़ों से अलग है मिरा मयार कि मैं
ज़ख़्म खाऊँगा तो कुछ और सँवर जाऊँगा

अब तो ख़ुर्शीद को गुज़रे हुए सदियाँ गुज़रीं
अब उसे ढूँडने मैं ता-ब-सहर जाऊँगा

ज़िंदगी शम्मा की मानिंद जलाता हूँ 'नदीम'
बुझ तो जाऊँगा मगर सुब्ह तो कर जाऊँगा

तब्सरा 

अहमद नदीम क़ासमी की ज़िंदगी और उनकी रचनाएँ उर्दू साहित्य का एक गहरा अध्याय हैं। एक शायर, लेखक, आलोचक, और मार्गदर्शक के रूप में उन्होंने अपनी कहानियों और शायरी के माध्यम से लोगों के दिलों में जगह बनाई। उन्होंने नई पीढ़ी के लेखकों और शायरों को प्रेरित किया और उर्दू साहित्य में उनका योगदान अद्वितीय रहा। उनके योगदान और उनकी साहित्यिक सेवा से यह सिद्ध होता है कि शब्दों में समाज और संस्कृति को आकार देने की शक्ति होती है।ये भी पढ़ें 

और नया पुराने