किश्वर नाहिद: उर्दू अदब की मशहूर शायरा और नारीवादी आंदोलन की आवाज़

किश्वर नाहिद: उर्दू अदब की बुलंद आवाज़ और नारीवादी आंदोलन की मशाल

किश्वर नाहिद, उर्दू अदब की एक शानदार शायरा और नारीवादी आंदोलन की जानी-मानी हस्ती, ने अपनी लेखनी से साहित्य और समाज में गहरी छाप छोड़ी है। 18 जून 1940 को बुलंदशहर, उत्तर प्रदेश में जन्मी किश्वर नाहिद ने भारत के विभाजन के बाद 1949 में पाकिस्तान का रुख किया। उन्होंने अपनी शायरी और लेखनी से न केवल साहित्यिक दुनिया में एक अहम स्थान हासिल किया, बल्कि समाज में महिलाओं के अधिकार और बराबरी के लिए भी आवाज़ उठाई।


आग़ाज़-ए-ज़िंदगी और तालीम

किश्वर नाहिद का जन्म एक पारंपरिक सैयद परिवार में हुआ। उनका बचपन भारत के विभाजन के बाद की कठिन परिस्थितियों और समाज में औरतों के प्रति हो रहे जुल्मो-सितम को देखकर बीता। तालीम की शुरुआत घर से ही हुई, जहाँ उन्होंने अपनी शुरुआती शिक्षा प्राप्त की। बाद में, उन्होंने पंजाब यूनिवर्सिटी से बी.ए. और अर्थशास्त्र में एम.ए. की डिग्री हासिल की। उनके भाई सय्यद इफ्तिख़ार ज़ैदी की तालीमी और अदबी रहनुमाई ने उनके अंदर साहित्यिक दृष्टिकोण और सोच को आकार दिया।

अदबी सफ़र

किश्वर नाहिद का अदबी सफ़र उनकी शायरी और रचनाओं से जुड़ी एक ऐतिहासिक यात्रा थी। उन्होंने 12 काव्य संग्रह और बच्चों के लिए 8 किताबें लिखीं। उनकी नज़्म "हम गुनाहगार औरतें" नारी सशक्तिकरण का प्रतीक बन चुकी है। उनकी प्रमुख रचनाओं में "लब-ए-गोया", "गलीयाँ, धूप, दरवाज़े" और "दश्त-ए-कैस में लैला" शामिल हैं। उनकी कविता समाज की कठिनाइयों और इंसानियत के संघर्षों को बयां करती है।

नारीवाद और समाजी जद्दोजहद

किश्वर नाहिद का नारीवाद के प्रति समर्पण उनके साहित्यिक और समाजिक कार्यों में स्पष्ट दिखाई देता है। उन्होंने महिलाओं के अधिकार और उनके सशक्तिकरण के लिए "हव्वा" नामक संगठन की स्थापना की। उनकी शायरी समाज की रुढ़िवादी सोच को चुनौती देती है, और औरतों को अपनी पहचान बनाने के लिए प्रेरित करती है। उनकी आत्मकथा "बुरी औरत की ख़ता" में उनके व्यक्तिगत संघर्षों और समाजी मुद्दों का गहरा चित्रण है।

सियासत और अदब का इत्तिहाद

किश्वर नाहिद का साहित्य केवल सियासत और समाज से जुड़ा नहीं, बल्कि यह इंसानियत और भाईचारे के विचारों को भी आगे बढ़ाता है। उन्होंने भारत और पाकिस्तान के बीच शांति की पहल की। उनकी रचनाएँ कट्टरवाद, हिंसा और मजहबी असहिष्णुता के खिलाफ मजबूत आवाज़ उठाती हैं। उनके साहित्य में शांति, सह-अस्तित्व और मानवता की गहरी भावना समाहित है।

अहम रचनाएँ

  • लब-ए-गोया (1968)
  • गलीयाँ, धूप, दरवाज़े (1978)
  • दश्त-ए-कैस में लैला (2001)
  • बुरी औरत की ख़ता (आत्मकथा)
  • औरत-मर्द का रिश्ता

सम्मान और पुरस्कार

किश्वर नाहिद को उनकी अदबी सेवाओं के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। 2000 में उन्हें पाकिस्तान सरकार द्वारा "सितारा-ए-इम्तियाज़" से नवाज़ा गया। 2015 में उन्हें "कमाल-ए-फ़न" सम्मान प्राप्त हुआ। उनकी रचनाओं का अनुवाद कई भाषाओं में हुआ, जिससे उनका असर और पहचान दुनियाभर में फैला।

अदब और समाज पर असर

किश्वर नाहिद ने अपने साहित्य और सामाजिक कार्यों के ज़रिए यह साबित किया कि लेखनी सिर्फ ख्यालों का इज़हार नहीं, बल्कि समाज में बदलाव लाने का एक ताकतवर ज़रिया है। उनकी शायरी में उर्दू ज़बान की नज़ाकत और समाज की सच्चाइयों का बेहतरीन मेल मिलता है। उनकी रचनाओं ने न केवल महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष को बल दिया, बल्कि समाज में सुधार की एक नई दिशा भी दिखाई।


किश्वर नाहिद की शायरी ग़ज़लें,नज़्में 


1-ग़ज़ल 


दिल को भी ग़म का सलीक़ा न था पहले पहले

उस को भी भूलना अच्छा लगा पहले पहले


दिल था शब-ज़ाद उसे किस की रिफ़ाक़त मिलती

ख़्वाब ता'बीर से छुपता रहा पहले पहले


पहले पहले वही अंदाज़ था दरिया जैसा

पास आ आ के पलटता रहा पहले पहले


आँख आईनों की हैरत नहीं जाती अब तक

हिज्र का घाव भी उस ने दिया पहले पहले


खेल करने को बहुत थे दिल-ए-ख़्वाहिश-दीदा

क्यूँ हवा देख जलाया दिया पहले पहले


उम्र-ए-आइंदा के ख़्वाबों को प्यासा रक्खा

फ़ासला पाँव पकड़ता रहा पहले पहले


नाख़ुन-ए-बे-ख़बरी ज़ख़्म बनाता ही रहा

कू-ए-वहशत में तो रस्ता न था पहले पहले


अब तो उस शख़्स का पैकर भी गुल-ए-ख़्वाब नहीं

जो कभी मुझ में था मुझ जैसा था पहले पहले


अब वो प्यासा है तो हर बूँद भी पूछे निस्बत

वो जो दरियाओं पे हँसता रहा पहले पहले


वो मुलाक़ात का मौसम नहीं आया अब के

जो सर-ए-ख़्वाब सँवरता रहा पहले पहले


ग़म का दरिया मिरी आँखों में सिमट कर पूछे

कौन रो रो के बिछड़ता रहा पहले पहले


अब जो आँखें हुईं सहरा तो खुला हर मंज़र

दिल भी वहशत को तरसता रहा पहले पहले


मैं थी दीवार तो अब किस का है साया तुझ पर

ऐसा सहरा-ज़दा चेहरा न था पहले पहले

2-ग़ज़ल 

हसरत है तुझे सामने बैठे कभी देखूँ

मैं तुझ से मुख़ातिब हूँ तिरा हाल भी पूछूँ


दिल में है मुलाक़ात की ख़्वाहिश की दबी आग

मेहंदी लगे हाथों को छुपा कर कहाँ रक्खूँ


जिस नाम से तू ने मुझे बचपन से पुकारा

इक 'उम्र गुज़रने पे भी वो नाम न भूलूँ


तू अश्क ही बन के मिरी आँखों में समा जा

मैं आईना देखूँ तो तिरा अक्स भी देखूँ


पूछूँ कभी ग़ुंचों से सितारों से हवा से

तुझ से ही मगर आ के तिरा नाम न पूछूँ


जो शख़्स कि है ख़्वाब में आने से भी ख़ाइफ़

आईना-ए-दिल में उसे मौजूद ही देखूँ


ऐ मेरी तमन्ना के सितारे तू कहाँ है

तू आए तो ये जिस्म शब-ए-ग़म को न सौंपूँ

3-ग़ज़ल 

शाम बाँहों में लिए रात की रानी आई

ऐ मोहब्बत तुझे देने को सलामी आई


तिश्नगी इतनी कि दरिया है मिरी आँखों में

ना-शनासा तिरे होने की गवाही आई


जिस से मंसूब हुआ मेरे ख़यालों का सफ़र

ढूँडने उस को मिरे साथ हवा भी आई


मुझ में मौजूद है वो और नहीं है ज़ाहिर

उस की ख़्वाहिश दर-ओ-दीवार बनाती आई


ज़ख़्म ऐसा था टपकता था लहू आँखों से

उस की ख़्वाहिश दर-ओ-दीवार बनाती आई


ज़ख़्म ऐसा था टपकता था लहू आँखों से

दिल बयाँ कर न सका ऐसी तबाही आई


पुर्सिश-ए-हाल करे कौन किसे है फ़ुर्सत

कब मिरे सहन में ना-दीदा ख़ुदाई आई

4-ग़ज़ल 

तिरे क़रीब पहुँचने के ढंग आते थे

ये ख़ुद-फ़रेब मगर राह भूल जाते थे


हमें अज़ीज़ हैं इन बस्तियों की दीवारें

कि जिन के साए भी दीवार बनते जाते थे


सतीज़-ए-नक़्श-ए-वफ़ा था तअल्लुक़-ए-याराँ

वो ज़ख़मा-ए-रग-ए-जां छेड़ छेड़ जाते थे


वो और कौन तिरे क़ुर्ब को तरसता था

फ़रेब-ख़ुर्दा ही तेरा फ़रेब खाते थे


छुपा के रख दिया फिर आगही के शीशे को

इस आईने में तो चेहरे बिगड़ते जाते थे


अब एक उम्र से दुख भी कोई नहीं देता

वो लोग क्या थे जो आठों पहर रुलाते थे


वो लोग क्या हुए जो ऊँघती हुई शब में

दर-ए-फ़िराक़ की ज़ंजीर सी हिलाते थे

5-ग़ज़ल 

हवा कुछ अपने सवाल तहरीर देखती है

कि बादलों को भी मिस्ल-ए-ज़ंजीर देखती है


मुझे बुलाता है फिर वही शहर-ए-ना-मुरादी

कि आरज़ू आबलों में तस्वीर देखती है


जो कश्तियों में न बैठ पाए वो घर न पहुँचे

सफ़र की ताईद शाम-ए-तक़्सीर देखती है


बहुत दिनों में सितम के दरिया का ज़ोर टूटा

सरिश्त-ए-शब भी बरहना ताज़ीर देखती है


समुंदरों का उरूज फिर रेत बन गया है

शहाब-ए-साक़िब में रात तफ़्सीर देखती है


हवा चली थी प शहर-ए-जाँ के थे दर मुक़फ़्फ़ल

ये आँख अपने ही ख़्वाब ताख़ीर देखती है


सुबू लिए तिश्नगी खड़ी थी ये जानती थी

कि जाँ-फ़रोशों को क़ौस-ए-शमशीर देखती है


नियाबत-ए-शहर उन के हाथों में अब न होगी

कमान-दारों को शब की ज़ंजीर देखती है

1-नज़्म 


ये हम गुनहगार औरतें हैं

जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ


न जान बेचें

न सर झुकाएँ


न हाथ जोड़ें

ये हम गुनहगार औरतें हैं


कि जिन के जिस्मों की फ़स्ल बेचें जो लोग

वो सरफ़राज़ ठहरें


नियाबत-ए-इम्तियाज़ ठहरें

वो दावर-ए-अहल-ए-साज़ ठहरें


ये हम गुनहगार औरतें हैं

कि सच का परचम उठा के निकलें


तो झूट से शाहराहें अटी मिले हैं

हर एक दहलीज़ पे सज़ाओं की दास्तानें रखी मिले हैं


जो बोल सकती थीं वो ज़बानें कटी मिले हैं

ये हम गुनहगार औरतें हैं


कि अब तआक़ुब में रात भी आए

तो ये आँखें नहीं बुझेंगी


कि अब जो दीवार गिर चुकी है

उसे उठाने की ज़िद न करना!


ये हम गुनहगार औरतें हैं

जो अहल-ए-जुब्बा की तमकनत से न रोब खाएँ


न जान बेचें

न सर झुकाएँ न हाथ जोड़ें!

2-नज़्म 

बंदर चूहा और ख़रगोश

हँसते हँसते थे बेहोश


पास थी एक गिलहरी भी

थी चूहे से मोटी भी


और कुत्ता था मुँह खोले

टाँगों में था नेकर पहने


सब से बड़ी थी लोमड़ी

थी उस की मोटी खोपड़ी


ये सब ही प्यार से रहते थे

सब नाचते गाते हँसते थे


इक दिन वो बोले ख़ुश हो के

हम आँख-मिचोली खेलेंगे


जो पकड़ा जाए चोर बने

उस की आँखों पे पट्टी बंधे


जो भी पकड़ा न जाएगा

आख़िर राजा कहलाएगा


पहले कुत्ते की बारी थी

उस की सब से ही यार थी


उस ने सोचा किस को पकड़ूँ

आख़िर मैं किस को चोर कहूँ


इतने में बोला बंदर भी

आए हैं मियाँ-छछूंदर भी


कहते हैं मैं भी खेलोंगा

मैं आख़िर सब को पकड़ूँगा


कुत्ते ने कहा आने दो इसे

हाँ चोर ज़रा बनने दो इसे


ये सुन के शैख़ी में आ के

ख़ुद आप छछूंदर ने बढ़ के


कुत्ते से कहा मुझ को पकड़ो

मेरे मुँह पे पट्टी बाँधो


मैं हर एक को पकड़ूँगा

आख़िर राजा कहलाऊँगा


अहमक़ थे मियाँ छछूंदर भी

पढ़ते थे अंतर-मंतर भी


कोई भी हाथ न आता था

कोई भी चोर न बनता था


थक थक के हाल ख़राब हुआ

लेकिन न कोई किसी को हाथ लगा


अच्छा नहीं शैख़ी में आना

अच्छा नहीं होता इतराना

तब्सरा:-

किश्वर नाहिद सिर्फ उर्दू अदब की एक बेमिसाल शायरा ही नहीं, बल्कि नारीवाद और सामाजिक बदलाव की एक प्रेरणादायक आवाज़ हैं। उनकी रचनाएँ आज भी समाज में बदलाव लाने और महिलाओं को अपनी आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करती हैं। उनका साहित्य और उनके विचार आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर बन चुकी है।

किश्वर नाहिद ने अपनी लेखनी से यह साबित किया कि मुश्किल हालातों में भी अपनी आवाज़ को बुलंद करना और अपने अधिकारों के लिए खड़ा रहना कितना ज़रूरी है। उनकी सोच और साहित्य हमेशा याद किए जाएंगे और आने वाली पीढ़ियाँ उनसे प्रेरणा लेकर अपने हक़ के लिए खड़ी रहेंगी।ये भी पढ़ें 

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