वली मुहम्मद वली: उर्दू अदब का रौशन सितारा और ग़ज़ल का मसीहा

 

जन्म: 1667, औरंगाबाद, महाराष्ट्र
मृत्यु: 1707, अहमदाबाद, गुजरात
उपनाम: वली दकनी, वली औरंगाबादी, वली गुजराती
मुख्य विधाएं: ग़ज़ल, मसनवी, क़सीदा, मुखम्मस


प्रारंभिक जीवन: एक महान शायर की नींव

वली मुहम्मद वली, जिन्हें उर्दू ग़ज़ल का जनक माना जाता है, का जन्म औरंगाबाद के एक मामूली लेकिन तहज़ीबदार परिवार में हुआ। वली की ज़िंदगी के शुरुआती दिन सादगी और ज़हनी तशक्कुल के थे। उनकी तालीम में पारंपरिक इस्लामी शिक्षा का हिस्सा तो था ही, साथ ही उन्होंने फ़ारसी और अरबी ज़बान में महारत हासिल की।

बचपन से ही वली के दिल में इल्म और अदब की शमा रौशन थी। उनका झुकाव शायरी और अदब की ओर बचपन से ही था, और उन्होंने नौजवानी में ही शेर लिखने शुरू कर दिए थे। औरंगाबाद जैसे सांस्कृतिक और अदबी माहौल वाले शहर ने उनके शुरुआती ज़हन को संवारने में अहम भूमिका निभाई।



अदबी सफर: ग़ज़ल का नया दौर

वली ने अपनी ज़िंदगी को इल्म, सफर और शायरी के लिए समर्पित कर दिया। उनका अदबी सफर तब बुलंदियों पर पहुँचा जब उन्होंने दिल्ली की यात्रा की। 1700 के करीब उनकी यह यात्रा उर्दू अदब की तारीख़ में एक अहम मुकाम है। उस दौर में दिल्ली हिंदुस्तानी तहज़ीब और अदब का मरकज़ था। वली ने अपनी ग़ज़लों के ज़रिये न सिर्फ दिल्ली के शायरों और अदबी हल्कों को मुतास्सिर किया, बल्कि उर्दू ग़ज़ल को एक मज़बूत बुनियाद भी प्रदान की।


वली ने ग़ज़ल को फ़ारसी के जटिल और शाही अंदाज़ से निकालकर एक सादा, मोहक और हिंदुस्तानी मिज़ाज में ढाला। उन्होंने अपनी शायरी में आम लोगों के ज़ज्बात, हुस्न-ओ-इश्क़ के रंग, और हिंदुस्तानी तहज़ीब की झलक को शामिल किया। उनकी ग़ज़लों में सादगी और गहराई का ऐसा मेल था कि हर तबके के लोग उनसे जुड़ सके।


वली का फन और उनकी शैली

वली का अदबी अंदाज़ और उनका फन उनकी गहरी सोच और मशरिकी तहज़ीब का आईना था। उनकी ग़ज़लों में मौसीकी का रंग था, उनकी मसनवियों में किस्सागोई की चमक थी, और उनके क़सीदों में फ़ारसी के नफासत भरे अंदाज़ की झलक थी।

वली ने अपनी ग़ज़लों में इश्क़ के ऐसे बारीक पहलुओं को छुआ, जिन्हें पहले सिर्फ फारसी शायरों ने बयान किया था। लेकिन वली की खासियत यह थी कि उन्होंने इश्क़ को हिंदुस्तानी मिज़ाज और ज़बान में ढालकर हर दिल में जगह बनाई। उनकी ग़ज़लों के मिसरे आसान, लेकिन असरदार थे, जैसे:

"दिल की तमन्ना थी कि हर शब वो मेरे साथ रहे,
अफ़सोस ये कि ख्वाब में भी दूर वो बसा।"



दिल्ली की यात्रा और प्रभाव

दिल्ली की अदबी महफ़िलों में वली का स्वागत हुआ और उन्होंने फारसी अदब में रचे-बसे दिल्ली के शायरों को उर्दू की ताक़त का एहसास कराया। उनकी शायरी ने न सिर्फ शायरों बल्कि आम अवाम को भी मुतास्सिर किया। यह वली का ही कमाल था कि उर्दू ग़ज़ल को एक नई पहचान मिली और इसे हिंदुस्तानी अदब का हिस्सा मान लिया गया।



वली की विरासत और आने वाली पीढ़ियाँ

वली का असर सिर्फ उनके दौर तक सीमित नहीं रहा। उनकी शायरी ने मीर तकी मीर, सौदा, ज़ौक और ग़ालिब जैसे महान शायरों को प्रेरित किया। वली ने उर्दू ज़बान को एक ऐसी अदबी बुलंदी पर पहुँचाया जो आने वाले सैकड़ों सालों तक कायम रही। उनकी ग़ज़लों ने उर्दू को न सिर्फ हिंदुस्तान बल्कि पूरी दुनिया में शोहरत दिलाई।



निधन और उनके बाद का दौर

1707 में अहमदाबाद में वली का इंतिकाल हो गया। उनकी मजार अहमदाबाद में उर्दू अदब के चाहने वालों के लिए एक मुकद्दस जगह थी। हालांकि, वक्त के साथ इस पर मजहबी और सियासी तनाजे भी हुए, लेकिन उनकी अदबी मीरास को कोई मिटा नहीं सका। वली की शायरी आज भी उर्दू अदब की रूह में जिन्दा है।



वली मुहम्मद वली: एक अदबी धरोहर

वली मुहम्मद वली का नाम उर्दू अदब की दुनिया में हमेशा चमकता रहेगा। उनकी शायरी ने जिस तहज़ीब, मोहब्बत और इंसानी जज्बात को बयां किया, वह अदब के इतिहास में एक बेमिसाल मिसाल है। उनकी ग़ज़लें आज भी उतनी ही ताज़ा और असरदार हैं, जितनी उनके दौर में थीं। वली ने उर्दू को वह मकाम दिया, जिसे कोई और ज़बान हासिल नहीं कर सकी। उनके बिना उर्दू अदब का तसव्वुर अधूरा है।


वली मुहम्मद वली (वली दखनी ) की शायरी,ग़ज़लें 


1-ग़ज़ल 

मुफ़्लिसी सब बहार खोती है

मर्द का ए'तिबार खोती है


क्यूँके हासिल हो मुज को जमइय्यत

ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है


हर सहर शोख़ की निगह की शराब

मुझ अँखाँ का ख़ुमार खोती है


क्यूँके मिलना सनम का तर्क करूँ

दिलबरी इख़्तियार खोती है


ऐ 'वली' आब उस परी-रू की

मुझ सिने का ग़ुबार खोती है


2-ग़ज़ल 

शग़्ल बेहतर है इश्क़-बाज़ी का

क्या हक़ीक़ी ओ क्या मजाज़ी का


हर ज़बाँ पर है मिस्ल-ए-शाना मुदाम

ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी का


आज तेरी भवाँ ने मस्जिद में

होश खोया है हर नमाज़ी का


गर नईं राज़-ए-इश्क़ सूँ आगाह

फ़ख़्र बेजा है फ़ख़्र-ए-राज़ी का


ऐ 'वली' सर्व-क़द को देखूँगा

वक़्त आया है सरफ़राज़ी का

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3-ग़ज़ल 

तिरा मजनूँ हूँ सहरा की क़सम है

तलब में हूँ तमन्ना की क़सम है


सरापा नाज़ है तू ऐ परी-रू

मुझे तेरे सरापा की क़सम है


दिया हक़ हुस्न-ए-बाला-दस्त तुजकूं

मुझे तुझ सर्व-ए-बाला की क़सम है


किया तुझ ज़ुल्फ़ ने जग कूँ दिवाना

तिरी ज़ुल्फ़ाँ के सौदा की क़सम है


दो-रंगी तर्क कर हर इक से मत मिल

तुझे तुझ क़द्द-ए-राना की क़सम है


किया तुझ इश्क़ ने आलम कूँ मजनूँ

मुझे तुझ रश्क-ए-लैला की क़सम है


'वली' मुश्ताक़ है तेरी निगह का

मुझे तुझ चश्म-ए-शहला की क़सम है


4-ग़ज़ल 

आशिक़ के मुख पे नैन के पानी को देख तूँ

इस आरसी में राज़-ए-निहानी कूँ देख तूँ


सुन बे-क़रार दिल की अवल आह-ए-शोला-ख़ेज़

तब इस हरफ़ में दिल के मआनी कूँ देख तूँ


ख़ूबी सूँ तुझ हुज़ूर ओ शमा दम-ज़नी में है

उस बे-हया की चर्ब-ज़बानी कूँ देख तूँ


दरिया पे जा के मौज-ए-रवाँ पर नज़र न कर

अंझुवाँ की मेरे आ के रवानी कूँ देख तूँ


तुझ शौक़ का जो दाग़ 'वली' के जिगर में है

बे-ताक़ती में उस की निशानी कूँ देख तूँ


5-ग़ज़ल 

जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे

उसे ज़िंदगी क्यूँ न भारी लगे


न छोड़े मोहब्बत दम-ए-मर्ग तक

जिसे यार-ए-जानी सूँ यारी लगे


न होवे उसे जग में हरगिज़ क़रार

जिसे इश्क़ की बे-क़रारी लगे


हर इक वक़्त मुझ आशिक़-ए-पाक कूँ

प्यारे तिरी बात प्यारी लगे


'वली' कूँ कहे तू अगर यक बचन

रक़ीबाँ के दिल में कटारी लगे


तब्सरा 



वली मुहम्मद वली, जिन्हें उर्दू ग़ज़ल का जनक कहा जाता है, का फन उनकी शायरी और उनकी शख्सियत दोनों में झलकता है। उन्होंने अपनी ग़ज़लों से न केवल उर्दू ज़बान को एक नयी पहचान दी, बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब और मोहब्बत को भी नए आयाम दिए। वली की शायरी इश्क़, जज़्बात, और इंसानी एहसासात का वो ख़ज़ाना है, जो हर दिल को छू जाता है।

वली ने उर्दू ग़ज़ल को फारसी के जटिल ढाँचे से निकालकर सादगी और शायराना लहज़े में ढाला, जिसमें आम अवाम की ज़िंदगी और उनकी महबूब हसरतें ज़िंदा हो उठीं। उनके मिसरे ज़िंदगी के गहरे पहलुओं को इतने दिलकश अंदाज़ में बयां करते हैं कि हर तबका उनसे मुतास्सिर हुए बिना नहीं रहता।

उनकी मीरास आज भी उर्दू अदब का वो आसमान है, जिसके नीचे ग़ालिब, मीर, और ज़ौक जैसे शायरों ने अपने फन को परवाज़ दी। वली का नाम और काम अदब की दुनिया में हमेशा रौशन रहेगा। उनकी ग़ज़लें, उनके अफ़कार, और उनकी तहज़ीब, उर्दू अदब की रूह में हमेशा जिंदा रहेंगे।

"जिन्हें इश्क़ का तीर कारी लगे,
उन्हें ज़िंदगी क्यों न भारी लगे।"
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