سُدرشن فاکر
एक बेबाक रूहानी शायर की मुकम्मल तासीर
नाम: सुदर्शन फाकिर
तख़ल्लुस: 'फाकिर'
पैदाइश: 19 दिसंबर 1934, जालंधर, पंजाब (ब्रितानी भारत)
वफ़ात: 19 फरवरी 2008, जालंधर, पंजाब
मशहूर शाइर, गीतकार, फनकार
इब्तिदाई ज़िन्दगी — एक अहसासों से भरी शुरुआत
सुदर्शन फाकिर का जनम उस दौर में हुआ जब मुल्क अंग्रेज़ी हुकूमत के साए में था, और तहरीक-ए-आज़ादी की रूह ज़मीन से आसमान तक तारी थी। जालंधर की मिट्टी ने न जाने कितनी अदबी हस्तियों को जनम दिया, और उन्हीं में एक नाम था — सुदर्शन फाकिर।
बचपन से ही उनके लहजे में एक अलग मिठास थी। वो बात करते तो लगे जैसे लफ़्ज़ फूलों की तरह झड़ रहे हों। उनकी तालीम जालंधर के डी.ए.वी. कॉलेज से हुई, जहाँ उन्होंने अंग्रेज़ी और सियासत में एम.ए. किया। मगर जो तालीम किताबों से मिली, उससे कहीं ज़्यादा तालीम उन्हें ज़िन्दगी की गलीयों, नुक्कड़ों और तन्हाईयों से हासिल हुई।
अदब से आश्नाई — शायरी का जुनून
कॉलेज के दिनों से ही उनका रुझान नाटक और अदब की तरफ हो गया। उन्होंने न सिर्फ़ रंगमंच पर अपने फन का लोहा मनवाया, बल्कि मोहन राकेश जैसे अदीबों के ड्रामे 'आषाढ़ का एक दिन' को डायरेक्ट कर के साबित कर दिया कि उनके अंदर फ़नकार की एक मुकम्मल दुनिया बसती है।
लेकिन असली पहचान उन्हें शायरी से मिली। उर्दू ज़बान की नर्मी और तहज़ीब ने उन्हें कुछ इस तरह छुआ कि उन्होंने उस ज़बान को अपने लहू में घोल लिया। वो उन चंद ग़ैर-मुस्लिम उर्दू शायरों में से थे जो न सिर्फ़ उर्दू लिखते थे, बल्कि उसे जीते थे।
‘फाकिर’ क्यों बने सुदर्शन?
‘फाकिर’ उनका तख़ल्लुस था — और यह तख़ल्लुस उनके मिज़ाज का आइना भी था। ना किसी शोहरत की तलब, ना दौलत की हवस — बस लफ़्ज़ों से मुहब्बत और अहसासों की इबादत। फाकिर रहना उन्होंने चुना था, क्योंकि वो जानते थे कि रूह की दौलत ही असल दौलत होती है।
बेगम अख़्तर से जगजीत सिंह तक — कलाम की उड़ान
सुदर्शन फाकिर की शायरी ने जिन दिलों को छुआ, उनमें एक नाम था — बेगम अख़्तर का। मल्लिका-ए-ग़ज़ल ने अपने आख़िरी दिनों में फाकिर की शायरी को गुनगुनाया। यह एक तरह की मुहर थी — उस्ताद की मुहर एक शागिर्द पर।
इसके बाद उनकी मुलाक़ात हुई जगजीत सिंह से — और फिर जो फन का संगम बना, वो आज भी अदब और संगीत की दुनिया में रोशन है। “वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी” महज़ एक ग़ज़ल नहीं थी, वो हर उस शख्स की तर्जुमानी थी जो अपने बचपन को तन्हाई में आवाज़ देता है।
उनकी ग़ज़लों में जो नमी थी, वो बारिश की नहीं, अंदर की भीगी हुई दीवारों की नमी थी।
फ़िल्मी दुनिया में कदम — जब शायरी गुनगुनाने लगी
फाकिर साहब ने जब जयदेव के लिए गाने लिखे, तो हर शेर, हर मिसरा दिल में उतरता गया।
"ज़िंदगी ज़िंदगी मेरे घर आना..."
ये गाना ना सिर्फ़ एक दुआ है, बल्कि एक इंतज़ार भी — ज़िन्दगी से मिलने का।
उन्होंने 'दूरियाँ', 'नाजायज़', 'सरफरोश', 'सरदार', जैसी फिल्मों में गाने लिखे जो दिल की गहराइयों में उतर जाते हैं।
उनका लिखा एक गीत जो आज भी सदियों तक जिंदा रहेगा:
"हे राम, हे राम..." — वो बस एक भक्ति गीत नहीं, बल्कि एक इंसानी सदा है।
शख्सियत — एक फाकिर, एक इंसान
फाकिर साहब जितने बड़े शायर थे, उतने ही बड़े इंसान भी थे। वो अपने दौर में बहुत से नवजवान शायरों को राह दिखाते थे। ज़िन्दगी को बहुत करीब से देखा, समझा और फिर उसी को शायरी में ढाल दिया।
उनकी बीवी सुदेश, और बेटा मनव फाकिर — आज भी उनकी यादों को ज़िन्दा रखे हुए हैं। मनव ने भी शायरी और गीतों में अपनी राह बनाई है।
वफ़ात — जब लफ़्ज़ खामोश हुए
19 फरवरी 2008 को सुदर्शन फाकिर ने इस फानी दुनिया को अलविदा कहा।
लेकिन क्या शायर मरते हैं?
नहीं।
शायर वो आइना होता है, जो टूट कर भी चेहरे दिखाता रहता है।
आज भी जब कहीं से ये आवाज़ आती है —
"वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी..."
तो लगता है जैसे फाकिर साहब हमारे आस-पास हैं, और अपनी रूहानी शायरी से हमें फिर से इंसान बना रहे हैं।
अख़्तितामी अल्फ़ाज़ — एक नर्म सी दस्तक
सुदर्शन फाकिर की शायरी ने जो असर डाला है, वो ना सिर्फ़ उर्दू अदब की रहगुज़र में एक उजाला है, बल्कि हिंदुस्तानी तहज़ीब का एक नाज़ुक मगर गहरा हिस्सा भी।
उनके अशआर में एक रूहानी सुकून, एक सच्चाई की किरन और एक बचपन की मासूमियत है।
उनका फन हमें ये सिखाता है कि लफ़्ज़ों की भी एक तालीम होती है, और अगर दिल से लिखा जाए, तो हर मिसरा एक दुआ बन जाता है।
सुदर्शन फाकिर चले गए,
मगर उनका कलाम अब भी कहता है:
"शायद मैं ज़िंदगी की सहर ले के आ गया..."
सुदर्शन फाकिर की शायरी,ग़ज़लें नज़्में
ग़ज़ल-1
चराग़-ओ-आफ़ताब गुम बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब गुम बड़ी हसीन रात थी
मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम' बुझ गई
गिलास गुम शराब गुम बड़ी हसीन रात थी
लिखा था जिस किताब में कि 'इश्क़ तो हराम है
हुई वही किताब गुम बड़ी हसीन रात थी
लबों से लब जो मिल गए लबों से लब ही सिल गए
सवाल गुम जवाब गुम बड़ी हसीन रात थी
तब्सरा