अदब की दुनिया में कुछ नाम ऐसे होते हैं जो सिर्फ़ अपनी तहरीरों से नहीं, बल्कि अपने तर्जुमे, तहक़ीक़ और इल्मी नज़र से भी एक नई रवायत पैदा करते हैं। ख़ातिर ग़ज़नवी उन्हीं रोशन नामों में से एक हैं — एक ऐसे अदीब, जिन्होंने ज़बान को तहज़ीब बनाया, और अदब को इल्म की शकल दी।
उनका असल नाम मुहम्मद इब्राहीम बैग था, लेकिन अदबी हल्क़ों में वो अपने तख़ल्लुस “ख़ातिर ग़ज़नवी” से मशहूर हुए। वो न सिर्फ़ एक शायर थे, बल्कि एक लिसानियातदान (भाषाविद), तर्जुमान, प्रोफ़ेसर, नाटककार, और तालीम व तहक़ीक़ के शैदाई इंसान थे।
पैदाइश, खानदानी पृष्ठभूमि और इब्तिदाई ज़िंदगी
5 नवंबर 1925 को पेशावर (तब ब्रिटिश इंडिया का हिस्सा) में अफ़ग़ान नस्ल के एक ख़ानदान में जन्मे ख़ातिर ग़ज़नवी का ताल्लुक ग़ज़नी, अफ़ग़ानिस्तान से था। उनका परिवार बाद में पेशावर आकर बस गया, जहाँ उनकी परवरिश और तालीम हुई। बचपन से ही उनमें इल्म और ज़बान का शौक़ क़ाबिले-ग़ौर था।
उन्होंने अपनी इब्तिदाई तालीम बन्नू से हासिल की और सेकेंडरी एजुकेशन पेशावर से। 1958 में उन्होंने पेशावर यूनिवर्सिटी से उर्दू में एम.ए. की डिग्री हासिल की। तालीम के दौरान ही उनकी दिलचस्पी ज़बानों की तहक़ीक़ और शायरी की दुनिया में बढ़ती चली गई।
तालीमी और पेशेवर सफ़र
एम.ए. के बाद उन्होंने पेशावर यूनिवर्सिटी में बतौर लेक्चरर अपने करियर की शुरुआत की। इल्म के इस सफ़र में वो धीरे-धीरे प्रोफ़ेसर और फिर चेयरमैन बने। वो न सिर्फ़ एक उस्ताद थे, बल्कि अपने तालिब-ए-इल्मों के लिए एक रहनुमा की तरह थे।
उनकी ज़बानों से मोहब्बत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मलय और चीनी ज़बानों में डिप्लोमा किया, और साथ ही उर्दू, पश्तो, हिंदको, अंग्रेज़ी, फ़ारसी, रूसी और मलय जैसी कई ज़बानों पर क़ाबू पाया।
उनकी यह बहुभाषिक महारत उनके अदबी कामों में नज़र आती है — चाहे वो उर्दू में शायरी हो, हिंदको में तर्जुमा, या पश्तो में तहक़ीक़।
अदबी और तहक़ीक़ी सफ़र
ख़ातिर ग़ज़नवी ने अपना करियर ऑल इंडिया रेडियो से शुरू किया, जहाँ उन्होंने एक क्लर्क से लेकर रेडियो प्रोड्यूसर और फिर प्रोग्राम ऑर्गेनाइज़र का दर्जा हासिल किया। 1942 से 1962 तक वो रेडियो पाकिस्तान से जुड़े रहे। इस दौरान उन्होंने न सिर्फ़ स्क्रिप्ट्स लिखीं बल्कि रेडियो ड्रामे और कल्चरल प्रोग्राम्स को नई रूह दी।
बाद में वो मलेशिया चले गए जहाँ उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ़ मलाया में पाकिस्तान स्टडीज़ और उर्दू डिपार्टमेंट के हेड के तौर पर काम किया। वहाँ उन्होंने “Urdu–Malay Common Words Dictionary” तैयार की — जो उनकी लिंग्विस्टिक समझ और तर्जुमे की क़ाबिलियत का नमूना थी।
वो पेशावर लौटकर यूनिवर्सिटी में चीनी ज़बान का डिपार्टमेंट भी क़ायम करने वाले पहले उर्दू अदीबों में से एक थे — जो उनकी इल्मी दूरअंदेशी का सुबूत है।
शायरी और तसानीफ़
ख़ातिर ग़ज़नवी का अदबी ख़ज़ाना बेहद वसीअ है। उन्होंने तक़रीबन 45 से ज़्यादा किताबें लिखीं — जिनमें शायरी, नज़्में, अफ़साने, बच्चों की किताबें और तहक़ीक़ी मज़ामीन शामिल हैं।
उनकी हिंदको ज़बान में तहरीर की गयी शायरी “कूँजन” के नाम से जानी जाती है। उनके मशहूर मजामीन और किताबों में शामिल हैं:
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ख़्वाब दर ख़्वाब (Khwab Dar Khwab) – एक रूहानी और तफ़क्कुर से लबरेज़ शायरी का मजमूआ
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साँप की छतरी – उनकी आख़िरी उर्दू शायरी की किताब
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पाकिस्तान में उर्दू – उर्दू के तालीमी और अदबी सफ़र पर ग़ैरमामूली तहक़ीक़
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जदीद उर्दू अदब और जदीद उर्दू नज़्म – पाकिस्तान के आधुनिक उर्दू अदब पर बेहतरीन तन्क़ीदी तहक़ीक़
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उर्दू ज़बान का मख़ज़ हिंदको (2003) – एक तहक़ीक़ी किताब जिसने उर्दू-हिंदी और हिंदको के रिशते पर गहरी बहस छेड़ दी
इसके अलावा उन्होंने ख़ुशाल ख़ान ख़ट्टक की शायरी को उर्दू और हिंदको में तर्जुमा किया। उनके ये तर्जुमे न सिर्फ़ लफ़्ज़ी बल्कि एहसास और ज़बानी रवायत का पुल साबित हुए।
लिसानियात और ज़बान की तहक़ीक़
ख़ातिर ग़ज़नवी ने ज़बान को सिर्फ़ बोलचाल का ज़रिया नहीं बल्कि तहज़ीब की जड़ समझा। उनकी तहक़ीक़ी किताब “उर्दू ज़बान का मख़ज़ हिंदको” में उन्होंने दलील दी कि उर्दू और हिंदी दोनों का अस्ल स्रोत हिंदको है।
हालाँकि कुछ माहिरीन ने इस राय से इत्तेफ़ाक़ नहीं किया, लेकिन ये किताब उर्दू लिंग्विस्टिक तहक़ीक़ का एक अहम दस्तावेज़ मानी जाती है। उनकी ये जुर्रत और “विचार की आज़ादी” उन्हें एक सच्चा प्रोग्रेसिव अदीब बनाती है।
तन्ज़ीमी किरदार और अदबी ख़िदमात
उन्होंने Pakistan Academy of Letters में बतौर डायरेक्टर और Progressive Writers’ Association (North-West Frontier) के वाइस प्रेसिडेंट के तौर पर काम किया। वहाँ उन्होंने नयी पीढ़ी के अफ़साना निगारों, शायरों और लिसानियातदानों को रहनुमाई दी।
उन्होंने Hindkowan नामी अख़बार और कई उर्दू-पश्तो मैगज़ीन्स में कॉलम लिखे — जहाँ उनकी नज़र समाज, ज़बान और इंसान की तामीर पर रहती थी।
आख़िरी दिन, मुश्किलात और विरासत
ज़िंदगी के आख़िरी दौर में ख़ातिर ग़ज़नवी माली और सेहत की मुश्किलों में गिरफ़्तार रहे। वो कराची में इलाज के दौरान 7 जुलाई 2008 को इंतिक़ाल कर गए। पेशावर में उन्हें सुपुर्द-ए-ख़ाक किया गया।
मौत से पहले उन्होंने अपनी तमाम किताबें, मख़तूतात और तहक़ीक़ी दस्तावेज़ पेशावर यूनिवर्सिटी को दान कर दिए — जो आज भी वहाँ की लाइब्रेरी में एक अदबी ख़ज़ाने के तौर पर महफ़ूज़ हैं।
एज़ाज़ और इज़हार-ए-इक़दार
1999 में हुकूमत-ए-पाकिस्तान ने उन्हें Presidential Pride of Performance के आला एज़ाज़ से नवाज़ा। यह एज़ाज़ उनके इल्मी सफ़र और अदबी ख़िदमात की सरकारी सतह पर तसदीक़ थी।
उनकी तहरीरें आज भी उर्दू अदब, हिंदको तहक़ीक़ और पश्तो कल्चर पर की जाने वाली हर गुफ़्तगू में मिसाल के तौर पर पेश की जाती हैं।
ख़ातिर ग़ज़नवी साहब की शायरी ,ग़ज़लें ,नज़्में
ग़ज़ल-1
इंसाँ हूँ घिर गया हूँ ज़मीं के ख़ुदाओं में
अब बस्तियाँ बसाऊँगा जा कर ख़लाओं में
यादों के नक़्श कंदा हैं नामों के रूप में
हम ने भी दिन गुज़ारे दरख़्तों की छाँव में
दौड़ा रगों में ख़ूँ की तरह शोर शहर का
ख़ामोशियों ने छीन लिया चैन गाँव में
यूँ तो रवाँ हैं मेरे तआक़ुब में मंज़िलें
लेकिन मैं ठोकरों को लपेटे हूँ पाँव में
वो आ के चल दिए हैं ख़यालों मैं गुम रहा
क़दमों की चाप दब गई दिल की सदाओं में
सर रख के सो गया हूँ ग़मों की सलीब पर
शायद कि ख़्वाब ले उड़ें हँसती फ़ज़ाओं में
एक एक कर के लोग निकल आए धूप में
जलने लगे थे जैसे सभी घर की छाँव में
सहरा की प्यास ले के चला जिन के साथ साथ
पानी की एक बूँद न थी उन घटाओं में
जलते गुलाब में न ज़रा सी भी आँच थी
हम तो जले हैं हिज्र की ठंडी ख़िज़ाओं में
ग़ज़ल-2
तिरी तलब थी तिरे आस्ताँ से लौट आए
ख़िज़ाँ-नसीब रहे गुलसिताँ से लौट आए
ब-सद-यक़ीं बढ़े हद्द-ए-गुमाँ से लौट आए
दिल ओ नज़र के तक़ाज़े कहाँ से लौट आए
सर-ए-नियाज़ को पाया न जब तिरे क़ाबिल
ख़राब-ए-इश्क़ तिरे आस्ताँ से लौट आए
क़फ़स के उन्स ने इस दर्जा कर दिया मजबूर
कि उस की याद में हम आशियाँ से लौट आए
बुला रही हैं जो तेरी सितारा-बार आँखें
मिरी निगाह न क्यूँ कहकशाँ से लौट आए
न दिल में अब वो ख़लिश है न ज़िंदगी में तड़प
ये कह दो फिर मिरे दर्द-ए-निहाँ से लौट आए
गुलों की महफ़िल-ए-रंगीं में ख़ार बन न सके
बहार आई तो हम गुलसिताँ से लौट आए
फ़रेब हम को न क्या क्या इस आरज़ू ने दिए
वही थी मंज़िल-ए-दिल हम जहाँ से लौट आए
ग़ज़ल-3
ग़ज़ल-4
ग़ज़ल-5
तब्सरा:-
उर्दू अदब के ताज में जो माणिक सदीयों तक चमकते रहेंगे, उनमें ख़ातिर ग़ज़नवी का नाम बेइंतिहा इज़्ज़त और एहतराम से लिया जाता है। वे सिर्फ़ एक शायर नहीं बल्कि एक मुफक्किर (विचारक), मोहक़्क़िक़ (शोधकर्ता) और अदबी रहनुमा (साहित्यिक मार्गदर्शक) भी थे। उनका कलाम न सिर्फ़ ज़बान की लय और लहजे की मिसाल है, बल्कि इंसानी जज़्बात की गहराइयों तक उतर जाने वाली एक तहक़ीक़ी रूह रखता है।
ख़ातिर ग़ज़नवी की शायरी में ज़िंदगी की तल्ख़ सच्चाइयों के साथ-साथ एक नर्म इंक़लाब की झलक दिखाई देती है — ऐसा इंक़लाब जो न तो नारों में है, न तख़्त उलटने में, बल्कि इंसान के ज़ेहन को नई सोच देने में है। उनकी ग़ज़लों में तहज़ीबी शऊर (संस्कृतिक चेतना) और इल्मी वुज्दान (वैज्ञानिक दृष्टिकोण) का संगम मिलता है। यही वजह है कि वे सिर्फ़ एक शायर नहीं बल्कि इंसानी फिक्र के रहबर बन गए।
उनकी ज़िंदगी का सफ़र उर्दू, हिंदी और पश्तो ज़बान के दरम्यान एक खूबसूरत पुल की तरह रहा — उन्होंने इन भाषाओं को एक-दूसरे से मिलाया, न कि अलग किया। उनकी रचनाओं में क़लमी पाकीज़गी (लेखन की पवित्रता) और ज़ेहनी वुसअत (विचारों की गहराई) एक साथ चलती हैं।
ख़ातिर ग़ज़नवी की सबसे बड़ी खूबियों में से एक यह थी कि उन्होंने अदब को समाज से जुदा नहीं किया। उनके यहाँ शायरी तफ़रीह नहीं, तर्बियत है — एक ऐसा सलीका जो इंसान को बेहतर इंसान बनने की दावत देता है।
आज जब उर्दू अदब की नई नस्ल पहचान की तलाश में है, ख़ातिर ग़ज़नवी का काम एक मशअल-ए-राह की तरह है — जो बताता है कि अदब सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं, बल्कि ज़मीर की आवाज़ भी है।
उनकी शख़्सियत में एक अजीब सा इख़लास (ख़लूस और ईमानदारी) झलकता है — चाहे वह रेडियो पाकिस्तान में उनकी तहरीरी ख़िदमतें हों या उनकी तालीमी कोशिशें, उन्होंने हर मोर्चे पर अपने फ़िक्र और कलम की रौशनी फैलाई।
तब्सिरे का निचोड़:
ख़ातिर ग़ज़नवी की ज़िंदगी और अदबी सफ़र इस बात का सबूत हैं कि सच्चा अदब सीमाओं को नहीं जानता — न ज़बान की, न सरहद की। उनकी तहरीरें बताती हैं कि उर्दू सिर्फ़ एक ज़बान नहीं बल्कि एक तहज़ीब है, जो सोचने, महसूस करने और जीने का तरीका सिखाती है।ये भी पढ़ें
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