मुक़द्दिमा
कभी-कभी वक़्त के सफ़र में कुछ शख़्सियतें ऐसी जन्म लेती हैं जो इल्म और फ़िक्र दोनों के चिराग़ बन जाती हैं। वो सिर्फ़ एक ज़माने की नहीं, सदियों की अमानत बन जाती हैं। पीरज़ादा क़ासिम रज़ा सिद्दीकी ऐसी ही एक रूहानी और ज़ेहनी शख़्सियत हैं — जिनका नाम सुनते ही उर्दू अदब की नज़ाकत, तालीम की नफ़ासत और इल्म की गहराई एक साथ ज़ेहन में उतर जाती है।
वो न सिर्फ़ एक शायर हैं, न सिर्फ़ एक आलिम, बल्के एक मुतफ़क़िर, तालीमी रहनुमा और इंसानी एहसास का नुमाइंदा हैं। उनकी ज़िंदगी इस बात की मिसाल है कि अदब और साइंस दो अलग रास्ते नहीं — बल्कि एक ही मंज़िल की दो रौशन दिशाएँ हैं।
पैदाइश और इब्तिदाई ज़िंदगी
पीरज़ादा क़ासिम का जन्म 8 फ़रवरी 1943 को दिल्ली में हुआ — एक ऐसे घराने में जो उर्दू ज़बान और तालीम-ओ-तहज़ीब का शैदाई था। उनके वालिद और वालिदा दोनों इल्मी मिज़ाज के थे। घर का माहौल किताबों, बातचीत और तहज़ीबी रवायतों से भरा हुआ था। यही वह ख़ामोश ज़मीन थी जहाँ एक नन्हे क़ासिम के अंदर इल्म और अदब के बीज बोए गए।
1947 की तक़्सीम ने जब पूरे उपमहाद्वीप को हिला दिया, तब उनके ख़ानदान ने भी हिजरत का रास्ता अख़्तियार किया और कराची आकर बस गया। वहाँ की नई सरज़मीन पर उन्होंने अपने ख़्वाबों की दुनिया फिर से तामीर की। छोटी उम्र में ही उन्होंने देख लिया कि ज़िंदगी किस तरह इल्म और सब्र के ताने-बाने से बनती है।
तालीम और तज़ुर्बा — इल्म का सफ़र
कराची में उन्होंने अपनी इब्तिदाई तालीम मुकम्मल की और फिर दाख़िला लिया मशहूर D.J. Science College में। वहाँ से उन्होंने इंटरमीडिएट की डिग्री हासिल की। आगे चलकर उन्होंने University of Karachi से B.Sc (Honours) में कामयाबी हासिल की, और इसी दौर में उनकी रुचि इंसानी जिस्म और उसकी हस्सियात (Physiology) की तरफ़ बढ़ी।
इल्म की प्यास उन्हें पाकिस्तान की सरहदों से बाहर ले गई। उन्होंने University of Newcastle upon Tyne (United Kingdom) से Ph.D. in Neuroscience हासिल की। वहाँ उन्होंने मशहूर वैज्ञानिक Lord Walton of Detchant की लैबोरेटरी में काम किया — जो उस दौर में न्यूरोलॉजिकल रिसर्च का मरकज़ मानी जाती थी।
ब्रिटेन में गुज़रे ये साल उनके लिए सिर्फ़ तालीमी नहीं बल्कि तज़ुर्बाती भी थे — वहाँ उन्होंने देखा कि इल्म की दुनिया में तफ़क्कुर (सोच) और तहक़ीक़ (खोज) एक साथ कैसे चलते हैं। ये वही सबक़ था जो उन्होंने बाद में पाकिस्तान लौटकर अपनी तदरीसी ज़िंदगी में उतारा।
तदरीस का आग़ाज़ और तालीमी सरगर्मियाँ
पाकिस्तान वापसी के बाद उन्होंने University of Karachi के Department of Physiology में बतौर लेक्चरर अपनी तदरीसी ज़िंदगी शुरू की। उस वक़्त वो मुश्किल से सत्ताईस बरस के थे, मगर इल्म की दुनिया में उनका लहजा बहुत परिपक्व और मुतमइन था।
धीरे-धीरे वो प्रोफ़ेसर बने, और फिर तालीमी दुनिया में अपनी मुस्तकिल मेहनत और अख़लाक़ी क़द्र-ओ-क़ीमत की वजह से उन्हें मुल्क की बड़ी यूनिवर्सिटीज़ का Vice Chancellor मुक़र्रर किया गया।
उनके ज़ेरे-इंतज़ाम जिन इदारों ने नई रौशनी पाई, उनमें शामिल हैं:
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University of Karachi
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Federal Urdu University of Arts, Science & Technology (FUUAST)
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Ziauddin University
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Nazeer Hussain University
हर जगह उन्होंने एक ही पैग़ाम दिया — “इल्म सिर्फ़ हुकूमत का ज़रिया नहीं, इंसानियत की खिदमत का नाम है।”
उनकी रहनुमाई में तालीमी मदारिस में न सिर्फ़ तदरीस का मयार बढ़ा बल्कि रिसर्च और अदबी सरगर्मियों में भी नयापन आया।
इल्मी तहकीक़ और साइन्टिफ़िक योगदान
पीरज़ादा क़ासिम का इल्मी काम उनकी शायरी जितना ही गहरा और मौलिक है। Neuroscience और Human Physiology के मैदान में उनका काम पाकिस्तान के लिए बुनियादी एहमियत रखता है। उन्होंने इंसानी नसों, मांसपेशियों की बीमारियों, ख़ून के कोशिकीय ढांचे, और दिमाग़ी फ़ंक्शन पर तफ़सीली तहकीक़ की।
उनके रिसर्च पेपर्स कई अंतरराष्ट्रीय जर्नल्स में शाया हुए। वो यह मानते थे कि:
“इल्म की कोई सरहद नहीं होती — वो इंसानियत का सबसे बड़ा मुतरजिम है।”
उनकी प्रयोगशाला हमेशा तलबा और नौजवान तहकीक़कारों से आबाद रहती थी। उन्होंने सैंकड़ों स्टूडेंट्स की रहनुमाई की जो बाद में खुद नामवर साइंटिस्ट बने।
शायरी — दिल और दिमाग़ का इत्तेहाद
अगर उनकी तदरीसी ज़िंदगी अक़्ल की तामील है, तो उनकी शायरी रूह का इज़हार है।
उनकी ग़ज़लें और नज़्में उस दौर की दास्तान हैं जब इंसान अपनी पहचान और ज़मीर की तलाश में था।
उनका कलाम समाज, सियासत और इंसानियत के बीच पुल बनाता है।
वो इश्क़ की बात करते हैं तो उसमें फ़लसफ़ा छिपा होता है; और जब हक़ीक़त बयान करते हैं तो उसमें शायराना जज़्बात की लहर होती है।
उनके कुछ मशहूर मज़मूए-ए-कलाम हैं:
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तीज़ हवा के जश्न में
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शोले पर ज़ुबान
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बे-मसाफ़त सफ़र
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मिलने से पहले
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अक़्स-ए-दरून
उनकी शायरी में मसर्रत भी है, ग़म भी; तफ़क्कुर भी है और तहरीक़ भी।
उनका मशहूर शे’र आज भी नई नस्ल के तलबा में जज़्बा भर देता है:
“शहर अगर करे तुझसे इलाज-ए-तारिकी,
साहिब-ए-इख़्तियार हो — आग लगा दिया करो।”
इस शे’र में एक इंक़लाबी सोच है — अंधेरे से डरने की नहीं, उससे टकराने की।
तालीमी रहनुमाई और इंतिज़ामी फ़लसफ़ा
Vice Chancellor के तौर पर उन्होंने हमेशा दो उसूल अपनाए —
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तालीम का मयार बढ़ाना,
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और इंसानी क़द्र-ओ-क़ीमत की पासदारी करना।
उन्होंने अपने तलबा को सिखाया कि यूनिवर्सिटी डिग्री लेने की जगह नहीं, सोच पैदा करने की जगह है।
उनका मानना था कि "रिसर्च सिर्फ़ डेटा का ढेर नहीं — बल्कि तसव्वुर और ज़िम्मेदारी का इज़हार है।"
उनकी निगरानी में कई नई रिसर्च लैब्स, स्कॉलरशिप प्रोग्राम्स और उर्दू मीडियम एजुकेशन के प्रोजेक्ट्स शुरू हुए। उन्होंने उर्दू को सिर्फ़ शायरी की नहीं, बल्कि इल्म की ज़बान बनाने का बीड़ा उठाया।
शख़्सियत की नज़ाकत और फ़लसफ़ा-ए-हयात
पीरज़ादा क़ासिम की शख़्सियत में नर्मी, तहज़ीब और तफ़क्कुर की ख़ुशबू घुली हुई है। वो अपने तलबा और सहकर्मियों के लिए एक दोस्त की तरह हैं — मगर उनके इल्म का क़द इतना बुलंद है कि सामने वाला खुद ही एहतराम में झुक जाता है।
उनका मानना है कि:
“इल्म का मक़सद अक़्ल को बड़ा करना नहीं — इंसान को पूरा करना है।”
वो मानते हैं कि जब तक तालीम इंसान के दिल तक नहीं पहुँचती, वो महज़ रटा है, इल्म नहीं।
उनकी सोच में एक ख़ूबसूरत इत्तेहाद नज़र आता है — साइंस की दलील और शायरी की रूह।
अदबी और इल्मी विरासत
आज पाकिस्तान और उर्दू अदब की दुनिया में پیرज़ादा क़ासिम का नाम एक जिंदा दस्तावेज़ की तरह है। उन्होंने वो राह दिखाई जिस पर चलकर नौजवान इल्म और अदब दोनों में कामयाब हो सकते हैं।
उनकी विरासत सिर्फ़ किताबों और रिसर्च पेपर्स में नहीं, बल्कि हज़ारों तलबा के दिलों में महफ़ूज़ है जिन्होंने उनसे सोचने का हुनर सीखा।
उनके काम का असर सिर्फ़ पाकिस्तान तक सीमित नहीं — ब्रिटेन, भारत और मिडल ईस्ट के अदबी हलक़ों में भी उनकी शायरी और इल्मी तहरीक़ का ज़िक्र आज भी एहतिराम से किया जाता है।
पीरज़ादा क़ासिम की शायरी,ग़ज़लें नज़्मे
ग़ज़ल -1
हमारी तरह कोई दूसरा हुआ भी नहीं
वो दर्द दिल में रखा है जो ला-दवा भी नहीं
हमारा दर्द अजब मरहले में है कि जहाँ
वो बे-सुख़न भी नहीं और लब-कुशा भी नहीं
उसी को देखती रहती है चश्म-ए-शौक़ मुदाम
जो ग़म अभी सर-ए-शाख़-ए-अलम खुला भी नहीं
अजीब तरह से रौशन हुई है ख़ल्वत-ए-ग़म
कि रौशनी है बहुत और दिया जला भी नहीं
ये दश्त-ए-शौक़ बहुत आफ़ियत-गज़ीदा है
कि अब यहाँ पे तो इम्कान-ए-नक़्श-ए-पा भी नहीं
गुज़र है कैसी फ़ज़ाओं से आज ताइर-ए-इश्क़
कि ज़ेर-ए-बाज़ू-ए-परवाज़ अब ख़ला भी नहीं
मैं ऐसे शख़्स को ज़िंदों में क्या शुमार करूँ
जो सोचता भी नहीं ख़्वाब देखता भी नहीं
ये इश्क़ ख़ाक ही होने का नाम था सो हमें
सिला मिला भी बहुत और सिला मिला भी नहीं
ये अस्र-ए-नौ की चिताओं में आग कैसी है
कि रूह राख हुई और बदन जला भी नहीं
तमाम उम्र अजब वज़्अ-दारियों में कटी
उसे अज़ीज़ रखा जो हमारा था भी नहीं
ग़ज़ल -2
मैं कब से अपनी तलाश में हूँ मिला नहीं हूँ
सवाल ये है कि मैं कहीं हूँ भी या नहीं हूँ
ये मेरे होने से और न होने से मुन्कशिफ़ है
कि रज़्म-ए-हस्ती में क्या हूँ मैं और क्या नहीं हूँ
मैं शब निज़ादों में सुब्ह-ए-फ़र्दा की आरज़ू हूँ
मैं अपने इम्काँ में रौशनी हूँ सबा नहीं हूँ
गुलाब की तरह इश्क़ मेरा महक रहा है
मगर अभी उस की किश्त-ए-दिल में खिला नहीं हूँ
ग़ज़ल -3
न जाने कितने ख़ुदाओं के दरमियाँ हूँ लेकिन
अभी मैं अपने ही हाल में हूँ ख़ुदा नहीं हूँ
कभी तो इक़बाल-मंद होगी मिरी मोहब्बत
नहीं है इम्काँ कोई मगर मानता नहीं हूँ
हवाओं की दस्तरस में कब हूँ जो बुझ रहूँगा
मैं इस्तिआरा हूँ रौशनी का दिया नहीं हूँ
मैं अपनी ही आरज़ू की चश्म-ए-मलाल में हूँ
खुला है दर ख़्वाब का मगर देखता नहीं हूँ
उधर तसलसुल से शब की यलग़ार है इधर मैं
बुझा नहीं हूँ बुझा नहीं हूँ बुझा नहीं हूँ
बहुत ज़रूरी है अहद-ए-नौ को जवाब देना
सो तीखे लहजे में बोलता हूँ ख़फ़ा नहीं हूँ
ग़ज़ल -4
ग़म से बहल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
दर्द में ढल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
साया-ए-वस्ल कब से है आप का मुंतज़िर मगर
हिज्र में जल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
अपने ख़िलाफ़ फ़ैसला ख़ुद ही लिखा है आप ने
हाथ भी मल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
वक़्त ने आरज़ू की लौ देर हुई बुझा भी दी
अब भी पिघल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
दायरा-वार ही तो हैं इश्क़ के रास्ते तमाम
राह बदल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
अपनी तलाश का सफ़र ख़त्म भी कीजिए कभी
ख़्वाब में चल रहे हैं आप आप बहुत अजीब हैं
नज़्म -1
मुलाक़ात
बाद एक मुद्दत के
अजनबी से चेहरों में
ख़्वाब ख़्वाब आँखों में
दर्द की समाअ'त में
बे-दिली की साअ'त में
एक अजनबी सूरत
आश्ना नज़र आई
ख़्वाब ख़्वाब आँखों में
रौशनी सी लहराई
दर्द की समाअ'त ने
दिल की कुछ ख़बर पाई
उस ने गर्म-जोशी से हाथ भी मिलाया था
बाद एक मुद्दत के मैं भी मुस्कुराया था
उस ने मेरे शाने को चूम ही लिया आख़िर
मैं भी एक लम्हे को झूम ही लिया आख़िर
आओ इक ज़रा सी देर लॉन ही में टहलेंगे
जो भी कहना सुनना है हो सका तो कह लेंगे
शायद एक मुद्दत की बेकली भी कल पाए
और हमारी क़िस्मत से चाँद भी निकल आए
इक उदास सन्नाटा और शब ज़मिस्ताँ की
बे-सुख़न कही हम ने बात दर्द-ए-पिन्हाँ की
चाँद ने भी चुपके से कुछ कहा तो था हम से
मेरे उलझे बालों से उस की ज़ुल्फ़-ए-बरहम से
वो थी चाँद था मैं था
यूँ तो कितने चेहरे थे
अपनी ज़ात के अंदर
हम सभी अकेले थे
सर्द सर्द इक चेहरा
ज़र्द ज़र्द इक चेहरा
गर्द गर्द इक चेहरा
दर्द-याफ़ता चेहरे हिज्र-याफ़ता चेहरे
जैसे रू-ब-रू अपने आईने से रक्खे थे
नज़्म-2
यद् रखने का हुनर
सुनो
ये याद रखने का हुनर आसाँ नहीं होता
मुझे तुम याद हो
और मेरी हर हर साँस में बस कर
मशाम-ए-जाँ मोअ'त्तर कर रही हो
ठीक है लेकिन
भला वो कौन था जिस ने
तुम्हें पहले-पहल चाहा
वो मेरा इश्क़ था मैं था
वो शायद मैं ही था
लेकिन नहीं है याद अब कुछ भी
सुनो
ये याद रखने का हुनर आसाँ नहीं होता
किसी को याद रखने में
बहुत कुछ भूल जाना ही तो पड़ता है
तब्सरा:-
पिरज़ादा क़ासिम रज़ा सिद्दीक़ी उर्दू अदब की उस रोशन परंपरा का नाम हैं जो इल्म, फ़िक्र और इंसानियत की गहराइयों में उतरकर शायरी और तालीम दोनों को नई जान बख़्शती है। 8 फ़रवरी 1943 को दिल्ली की ज़मीन पर एक उर्दू-ज़बान ख़ानदान में पैदा हुए पिरज़ादा क़ासिम का बचपन अदबी माहौल में बीता। तक़सीम-ए-हिंद के बाद जब उनका ख़ानदान पाकिस्तान आया तो कराची की सरज़मीन ने उनके इल्मी सफ़र को दिशा दी। डी.जे. साइंस कॉलेज और कराची यूनिवर्सिटी से अपनी बुनियादी तालीम पूरी करने के बाद उन्होंने इंग्लैंड के University of Newcastle Upon Tyne से PhD in Neuroscience की डिग्री हासिल की।
यह इल्मी सफ़र महज़ डिग्रियों तक सीमित नहीं रहा — उन्होंने इल्म को एक ज़िन्दा रविश बनाया। कराची यूनिवर्सिटी में बतौर लेक्चरर उनका आग़ाज़ हुआ, और वक़्त के साथ वो एक ऐसे उस्ताद बने जिन्होंने तालीम को सिर्फ़ पेशा नहीं बल्कि मिशन बना लिया। उनका यह यक़ीन था कि तालीम का मक़सद सिर्फ़ नौकरियाँ पैदा करना नहीं, बल्कि इंसानों को सोचने और समझने की ताक़त देना है। इसी तालीमी जुनून ने उन्हें वाइस चांसलर के ओहदे तक पहुँचाया और उन्होंने Federal Urdu University, University of Karachi, Ziauddin University और Nazeer Hussain University जैसे इदारों की रहनुमाई की। उनकी सरपरस्ती में इन यूनिवर्सिटियों ने न सिर्फ़ तालीम में नयी बुलंदियाँ हासिल कीं बल्कि उर्दू ज़ुबान को इल्म का पैकर बना दिया।
पिरज़ादा क़ासिम की शख़्सियत की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि उन्होंने इल्म और अदब के बीच कोई दीवार नहीं खड़ी की। वो एक साईंटिस्ट भी हैं और शायर भी — और यही दो दुनियाएँ उनके फ़िक्र में एक हो जाती हैं। उनकी शायरी में वो जज़्बा और वो तहकीक़ का अंदाज़ झलकता है जो एक साइंटिस्ट की सोच में होता है। उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में ज़िन्दगी की नर्मी, दर्द, और इन्सान के दिमाग़ की पेचीदगियों का बयान बड़ी ख़ूबसूरती से मिलता है। वो अपने अशआर में कहते हैं —
“ज़िन्दगी एक तजुर्बा है जो हर पल बदलता है,और हम हैं कि उसी में अपनी पहचान ढूँढते हैं।”
उनकी शायरी में इश्क़ की शफ़क़त भी है, वजूद की तलाश भी, और ज़माने के तसव्वुरात से मुठभेड़ करने का हौसला भी। वो इश्क़ को रूहानी सलीक़े से बयान करते हैं — एक ऐसा इश्क़ जो इंसान को खुद से मिलाता है। उनके अशआर में फ़ैज़ की मोहब्बत की ख़ुशबू भी है और जौन एलिया की तन्हाई का दर्द भी, मगर उनका अंदाज़ बिल्कुल अपना है — सादा, वाज़ेह, और दिल में उतर जाने वाला।
पिरज़ादा क़ासिम का असर पाकिस्तान की तालीमी दुनिया में गहराई से महसूस किया जाता है। उन्होंने नौजवानों को यह सिखाया कि इल्म किताबों का बोझ नहीं बल्कि ज़िन्दगी को समझने का ज़रिया है। वो तालीम को इंसानियत की तकमील मानते हैं और यही सोच उन्हें बाक़ी सब से जुदा करती है। उनकी तक़रीरें, मज़ामीन और शायरी — सब में एक ऐसी रोशनी है जो सोच को जगाती है और दिल को मुतहर्रिक करती है।
उनकी ज़िन्दगी और काम का सबसे बड़ा पैग़ाम यही है कि इंसान को इल्म और एहसास दोनों की ज़रूरत है। अगर इल्म दिमाग़ को रोशन करता है तो एहसास रूह को ज़िन्दा रखता है, और पिरज़ादा क़ासिम इन दोनों के मिलाप की मिसाल हैं। वो साबित करते हैं कि साईंस और अदब दो मुख़्तलिफ़ जहान नहीं, बल्कि एक ही हक़ीक़त के दो पहलू हैं।
पिरज़ादा क़ासिम की शख़्सियत का मुताला करने पर यह एहसास होता है कि वो एक दौर के नहीं बल्कि सदियों के आदमी हैं। उनका फ़िक्र माज़ी की तहज़ीब से जुड़ा है, मगर उनकी नज़र मुस्तक़बिल पर जमी है। वो तालीम के ज़रिए उर्दू को जामे से निकालकर तजुर्बे की ज़बान बनाते हैं। उनकी शायरी में ख़ुदी की ताक़त है, उनकी ज़िन्दगी में ख़लूस की रवानी है, और उनके इल्मी काम में इंसान की तलाश का वो सलीक़ा है जो हर अदीब का ख़्वाब होता है।
पिरज़ादा क़ासिम रज़ा सिद्दीक़ी सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि उर्दू अदब और इल्म का पुल हैं — वो पुल जो माज़ी की रूह को मुस्तक़बिल की ज़मीन से जोड़ता है। उनकी तालीमी खिदमतें और अदबी अस्नाद उन्हें एक ऐसे मुक़ाम पर खड़ा करती हैं जहाँ शायर, आलिम और इंसान एक दूसरे में गुम हो जाते हैं। उनका काम इस बात का सबूत है कि जब इल्म और अदब एक साथ चलें तो इन्सानियत नई ऊँचाइयों को छू सकती है।ये भी पढ़े
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