बचपन और तालीम की कहानी
अज़हर इक़बाल का पैदाइशी नाम भी उनकी तरह सीधा और ख़ालिस है। उनका जन्म 28 नवम्बर 1978 को बुढ़ाना, ज़िला मुज़फ़्फरनगर (मेरठ, उत्तर प्रदेश) में हुआ — वही ज़मीन जहाँ की मिट्टी में तहज़ीब और अदब का रंग रचा-बसा है।
बचपन से ही अज़हर का रुझान उर्दू अदब की तरफ़ था। घर के माहौल में मोहब्बत, इल्म और अदब की रूहानी महक थी।
शायरी का ज़ौक़ बचपन से ही उनके लहू में शामिल था।
अज़हर स्कूल के दिनों में ही कलम से खेलना सीख गए थे — और वो खेल फिर एक उम्र की इबादत में बदल गया।
उनके चार भाई हैं —
1️⃣ ताबिश फ़रीद, जो इक़बालाब न्यूज़ पेपर से बतौर रिपोर्टर जुड़े हैं,
2️⃣ हैदर फ़रीद,
3️⃣ कोकब फ़रीद,
4️⃣ क़ाज़ी नदीम अहमद।
उनके मामू मशहूर फिल्म एक्टर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी हैं, जिनकी सादगी और हुनर दोनों अज़हर की शख़्सियत में भी झलकते हैं।
अज़हर ने अपनी तालीम पूरी की और अदब को अपना मक़सद बना लिया।
ख़ानदानी ज़िन्दगी और मोहब्बत का सफ़र
ज़िन्दगी के सफ़र में मोहब्बत का एक ख़ूबसूरत पड़ाव आया जब 7 फ़रवरी 2009 को अज़हर इक़बाल का निकाह सय्यदा मासूमा से हुआ।
उनकी बीवी उनकी ज़िन्दगी का सहारा ही नहीं, बल्कि उनकी रचनात्मक सोच की हमसफ़र भी हैं।
अज़हर इक़बाल के दो बच्चे हैं —
🌸 बेटा: अब्दुल्लाह काशानी
🌸 बेटी: ज़हरा अज़हर
उनका घर भी एक छोटी-सी महफ़िल की तरह है — जहाँ मोहब्बत, अदब और तहज़ीब एक साथ सांस लेते हैं।
अज़हर की शायरी – लफ़्ज़ों में रूह, एहसास में गहराई
अज़हर इक़बाल ने जब कलम थामी तो उर्दू शायरी को एक नया लहजा मिला।
उनकी ग़ज़लों में जज़्बात की सादगी, मोहब्बत की पाकीज़गी और तजुर्बे की गहराई एक साथ नज़र आती है।
उनकी शायरी में मोहब्बत भी है, फ़लसफ़ा भी; हक़ीक़त भी है, ख़्वाब भी।
वो अपने अल्फ़ाज़ों से उस दर्द को बयान करते हैं जो लफ़्ज़ों से नहीं, एहसास से समझा जाता है।
उनकी शायरी का अंदाज़ क्लासिकल उर्दू की रवायत को निभाते हुए भी मॉडर्न तर्ज़े-अदायगी का आइना है।
अज़हर इक़बाल के कई अशआर आज सोशल मीडिया से लेकर अदबी महफ़िलों तक मशहूर हैं।
वो उन चंद शायरों में हैं जिनकी आवाज़ सुनकर भी लोग शेर याद कर लेते हैं।
अज़हर – शायर ही नहीं, अफसाना (पटकथा)-निगार भी
अज़हर इक़बाल ने सिर्फ़ शायरी तक ख़ुद को सीमित नहीं रखा। उन्होंने पटकथा लेखन (Screenwriting) के मैदान में भी कदम रखा और वहाँ भी अपने हुनर का लोहा मनवाया।
उनके लिखे डायलॉग्स और किरदारों में वो गहराई है जो उनकी शायरी में मिलती है — नफ़ासत, दर्द और सच्चाई का मेल।
साल 2015 में अज़हर इक़बाल ने "हरफ़कार फ़ाउंडेशन" की बुनियाद रखी —
एक ऐसा अदबी और फ़नकाराना इदारा जिसका मक़सद है उर्दू-हिंदी थिएटर, दास्तानगोई, और शायरी को नई ज़िन्दगी देना।
इस फाउंडेशन ने कई नये कलाकारों और शायरों को अपनी आवाज़ दुनिया तक पहुँचाने का मौक़ा दिया।
मुशायरे, जश्न और अदबी मंच
अज़हर इक़बाल की पेशकश, उनका अंदाज़-ए-बयान, और उनकी आवाज़ — ये तीनों मिलकर हर मुशायरे को यादगार बना देते हैं।
उन्होंने मुल्क और बाहर के कई बड़े मुशायरों में शिरकत की —
जश्न-ए-रेख्ता, जश्न-ए-बहार, शंकर शाद मुशायरा, और दिल्ली शेरो-शायरी महोत्सव जैसे मंचों पर उनके कलाम ने समा बाँध दिया।
उन्होंने टीवी पर भी अपने फ़न का जलवा बिखेरा —
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सब टीवी के शो “वाह! वाह! क्या बात है!” में उन्होंने अपनी ग़ज़लों से लोगों के दिल जीत लिये।
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2023 में सोनी टीवी के “द कपिल शर्मा शो” में बतौर शायर शिरकत की और अपनी नज़्मों से महफ़िल को रौनक दी।
उनकी आवाज़ में वो खनक है जो मुहब्बत को सच्चा बना देती है, और उनका लहजा वो है जो हर लफ़्ज़ को दिल की ज़ुबान बना देता है।
पुरुस्कार और अदबी एहतिराम
अज़हर इक़बाल को उनकी शायरी और अदबी खिदमात के लिए कई मंचों पर सराहा गया।
वो मुशायरों में मेहमान-ए-ख़ास के तौर पर बुलाए जाते हैं, जहाँ उनकी मौजूदगी ही एक जश्न की तरह होती है।
उनके कई कलाम रेडियो और डिजिटल मंचों पर प्रसारित होते हैं।
उनकी शायरी का असर इस बात से भी झलकता है कि नई नस्ल के शायर उनके लफ़्ज़ों से प्रेरणा लेते हैं।
वो उर्दू अदब की उस विरासत को ज़िन्दा रखे हुए हैं जो ग़ालिब, फ़ैज़, और निदा फ़ाज़ली की तर्ज़ पर चली आ रही है।
असर और विरासत
आज अज़हर इक़बाल मेरठ में रहते हैं — मगर उनका कलाम सरहदों से परे जाकर पूरी दुनिया के शायरी-परस्तों के दिलों में बसता है।
उनकी शायरी का हर मिसरा एक आईना है — जिसमें मोहब्बत, इंसानियत और ज़िन्दगी का सच झलकता है।
वो कहते हैं —
"शायरी जब दिल से निकले तो सरहदें नहीं देखती, बस दिलों तक पहुँच जाती है।"
और यही उनकी पहचान है —
एक शायर जो महज़ अल्फ़ाज़ नहीं लिखता, बल्कि एहसासों को ज़िन्दा करता है।
1- ग़ज़ल
2 - ग़ज़ल
हुई न ख़त्म तेरी रहगुज़ार क्या करते
तेरे हिसार से ख़ुद को फ़रार क्या करते
सफ़ीना ग़र्क़ ही करना पड़ा हमें आख़िर
तिरे बग़ैर समुंदर को पार क्या करते
बस एक सुकूत ही जिस का जवाब होना था
वही सवाल मियाँ बार बार क्या करते
फिर इस के बाद मनाया न जश्न ख़ुश्बू का
लहू में डूबी थी फ़स्ल-ए-बहार क्या करते
नज़र की ज़द में नए फूल आ गए 'अज़हर'
गई रुतों का भला इंतिज़ार क्या करते
