मुज़्तर खैराबादी का असली नाम इफ्तिखार हुसैन था, और उनका जन्म 1865 में खैराबाद में हुआ था। वह एक मशहूर उर्दू शायर थे और उनकी पैदाइश एक ऐसे परिवार में हुई, जो इल्म और अदब में काफी आगे था।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
मुज़्तर खैराबादी का असली नाम इफ्तिखार हुसैन था, और उनका जन्म 1865 में खैराबाद में हुआ था। वह एक मशहूर उर्दू शायर थे और उनकी पैदाइश एक ऐसे परिवार में हुई, जो इल्म और अदब में काफी आगे था। उनके दादा, फ़ज़ले हक़ खैराबादी, न सिर्फ एक बेहतरीन शायर थे बल्कि एक दार्शनिक, धार्मिक विद्वान, और स्वतंत्रता सेनानी भी थे। मज़्तर खैराबादी ने अपने दादा और मां से बहुत कुछ सीखा, जिन्होंने उनकी शुरुआती तालीम और तर्बियत की ज़िम्मेदारी निभाई।
इल्म और अदब की दुनिया में सफर
मुज़्तर खैराबादी ने अपना जीवन खैराबाद, टोंक, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल और रामपुर जैसे शहरों में गुज़ारा। इन मुख्तलिफ़ शहरों में रहने से उनकी शायरी में विविधता और गहराई आई। उनकी पहली गुरु उनकी मां थीं, जिन्होंने उन्हें न सिर्फ इल्म की रोशनी दी बल्कि अदब की बारीकियों से भी रूबरू कराया।
उन्होंने बहुत सारी काव्य कृतियाँ लिखीं और उर्दू अदब में अपनी एक अलग पहचान बनाई। उनके लिखे हुए कुछ मशहूर मजमुए "नज़र-ए-खुदा" और "मिलाद-ए-मुस्तफा" हैं, जो उनकी गहरी ईमानदारी और अल्लाह और रसूल की मोहब्बत को ज़ाहिर करते हैं। "नज़र-ए-खुदा" में उन्होंने अल्लाह की स्तुति में कविताएँ लिखीं और "मिलाद-ए-मुस्तफा" में उन्होंने नबी-ए-करीम की शान में नातें पेश कीं। इसके अलावा, "बेहर-ए-तवील" और "मर्ग-ए-ग़लत की फ़रियाद" जैसी कृतियाँ भी उनकी काबिलियत का सबूत हैं।
साहित्यिक योगदान और उपाधियाँ
मुज़्तर खैराबादी को उनकी शायरी और अदबी खिदमतों के लिए कई सम्मान और उपाधियों से नवाज़ा गया। उन्हें "एतबार-उल-मुल्क" और "इफ्तिखार-उल-शौरा" की उपाधियाँ मिलीं, जो उनके अदबी मुक़ाम और उनके काम की कदरदानी को दर्शाती हैं। उन्होंने "करिश्मा-ए-दिलबर" नामक एक साहित्यिक पत्रिका का संपादन और प्रकाशन भी किया, जो उस दौर में उर्दू अदब के लिए एक अहम मंच था।
खानदान और विरासत
मुज़्तर खैराबादी का साहित्यिक ख़ानदान बहुत मशहूर है। वह जाने-माने शायर और गीतकार जान निसार अख्तर के वालिद थे। उनके पोते गीतकार जावेद अख्तर और सलमान अख्तर भी उर्दू अदब और फिल्मी दुनिया में नामचीन शख्सियतें हैं। मज़्तर खैराबादी की अदबी विरासत आज भी उनके खानदान के जरिये जिन्दा है, जिसमें फरहान अख्तर, जोया अख्तर, और कबीर अख्तर जैसे नाम शामिल हैं। इस तरह उनकी शायरी और अदबी रंगत आज भी लोगों के दिलों पर राज कर रही है।
इंतकाल और यादें
27 मार्च 1927 को मज़्तर खैराबादी का इंतकाल ग्वालियर में हुआ, जहां उन्हें दफनाया गया। उनकी वफ़ात ने उर्दू अदब की दुनिया में एक बहुत बड़ा खलल पैदा किया, लेकिन उनकी शायरी और अदबी कारनामे आज भी उनकी याद को ताज़ा रखते हैं।
खुलासा
मुज़्तर खैराबादी उर्दू अदब के उन अजीम शायरों में से थे, जिनकी शायरी में दिल की गहराइयों और इश्क की परवाज़ दिखाई देती है। उनकी शायरी ने न सिर्फ उनके दौर में बल्कि आज भी अदब के चाहने वालों के दिलों में एक खास मक़ाम बनाया हुआ है। उनकी रचनाएँ उर्दू अदब का एक अनमोल हिस्सा हैं और उनकी यादें हमेशा हमारे दिलों में बसेंगी।
मुज्तर खैराबादी की शायरी,ग़ज़लें,मशहूर शेर
1- ग़ज़ल
न किसी की आँख का नूर हूँ न किसी के दिल का क़रार हूँ
किसी काम में जो न आ सके मैं वो एक मुश्त ए ग़ुबार हूँ
न दवा ए दर्द ए जिगर हूँ मैं न किसी की मीठी नज़र हूँ मैं
न इधर हूँ मैं न उधर हूँ मैं न शकेब हूँ न क़रार हूँ
मिरा वक़्त मुझ से बिछड़ गया मिरा रंग रूप बिगड़ गया
जो ख़िज़ाँ से बाग़ उजड़ गया मैं उसी की फ़स्ल ए बहार हूँ
पए फ़ातिहा कोई आए क्यूँ कोई चार फूल चढ़ाए क्यूँ
कोई आ के शम जलाए क्यूँ मैं वो बेकसी का मज़ार हूँ
न मैं लाग हूँ न लगाव हूँ न सुहाग हूँ न सुभाव हूँ
जो बिगड़ गया वो बनाव हूँ जो नहीं रहा वो सिंगार हूँ
मैं नहीं हूँ नग़्मा ए जाँ फ़ज़ा मुझे सुन के कोई करेगा क्या
मैं बड़े बिरोग की हूँ सदा मैं बड़े दुखी की पुकार हूँ
न मैं 'मुज़्तर' उन का हबीब हूँ न मैं 'मुज़्तर' उन का रक़ीब हूँ
जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ जो उजड़ गया वो दयार हूँ