मोहम्मद औरंगज़ेब, जो क़तील शिफ़ाई के नाम से प्रसिद्ध हुए, का जन्म 24 दिसंबर 1919 को हरिपुर, हज़ारा डिवीजन, भारत (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन्होंने 1938 में क़तील शिफ़ाई को अपना तख़ल्लुस (उपनाम) अपनाया, जिसमें "क़तील" उनका उपनाम था और "शिफ़ाई" उनके उस्ताद हकीम मोहम्मद शिफा खानपुरी के सम्मान में था।
प्रारंभिक जीवन और करियर
1935 में अपने पिता की अकाल मृत्यु के बाद, क़तील को अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ी और विभिन्न नौकरियों से खुद का सहारा बनाना पड़ा। उन्होंने सबसे पहले खेल का सामान बेचने की दुकान शुरू की, लेकिन यह व्यवसाय असफल रहा। इसके बाद वे रावलपिंडी चले गए, जहां उन्होंने एक परिवहन कंपनी में काम किया और लगभग 60 रुपये प्रति माह कमाए।ये भी पढ़ें
फिल्म उद्योग में सफलता
1946 में, नज़ीर अहमद ने क़तील को लाहौर बुलाया और साहित्यिक पत्रिका "अदब-ए-लतीफ" के मासिक सहायक संपादक के रूप में काम करने का अवसर दिया। उनकी पहली ग़ज़ल लाहौर साप्ताहिक "स्टार" में प्रकाशित हुई, जिसे क़मर जलालाबादी ने संपादित किया था।
जनवरी 1947 में, क़तील को एक लाहौर आधारित फिल्म निर्माता ने फिल्म के गाने लिखने के लिए आमंत्रित किया। उनकी पहली फिल्म के गीतकार के रूप में "तेरी याद" थी। इसके बाद क़तील ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने कई पाकिस्तानी और भारतीय फिल्मों के लिए गीत लिखे और अनेक पुरस्कार प्राप्त किए।
साहित्यिक योगदान और विरासत
क़तील शिफ़ाई ने फिल्मों में ग़ज़लों के स्तर को काफी ऊंचा उठाया, जिसे पहले साहिर लुधियानवी ने शुरू किया था। उन्होंने सरल भाषा और अधिक हिंदी शब्दों का उपयोग करके उर्दू शायरी को आम जनता के करीब लाया। उनके योगदान ने फिल्मों में ग़ज़लों के लिए एक मानक और सम्मान स्थापित किया।
क़तील ने 1970 में अपनी मातृ भाषा हिंदी में पहली फिल्म "क़िस्सा ख्वानी" बनाई, जो 1980 में रिलीज़ हुई थी।
उन्होंने 20 से अधिक काव्य संग्रह प्रकाशित किए और पाकिस्तानी और भारतीय फिल्मों के लिए 2,500 से अधिक गाने लिखे। उनकी शायरी का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है, जिनमें हिंदी, गुजराती, अंग्रेजी, रूसी और चीनी शामिल हैं। जगजीत सिंह, चित्रा सिंह और ग़ुलाम अली जैसे प्रसिद्ध गायकों ने उनके ग़ज़लों को अपने एलबम में गाया है।
उनकी शायरी पाकिस्तान और भारत के कई विश्वविद्यालयों के मास्टर डिग्री के पाठ्यक्रम में शामिल है, जो उनके गहरे प्रभाव को दर्शाता है।
पुरस्कार और सम्मान
क़तील शिफ़ाई को कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले, जिनमें शामिल हैं
प्राइड ऑफ परफॉर्मेंस अवार्ड (1994) - साहित्य में उनके योगदान के लिए पाकिस्तान सरकार द्वारा
आदमजी साहित्य पुरस्कार (1964)
नक़ूश पुरस्कार
अब्बासिन आर्ट्स काउंसिल पुरस्कार
अमीर खुसरो पुरस्कार - भारत में
स्पेशल मिलेनियम निगार पुरस्कार (1999) - पाकिस्तानी फिल्म उद्योग में आजीवन योगदान के लिए
वफ़ात (मृत्यु ) और स्मरण
2001 में क़तील शिफ़ाई को पक्षाघात और स्ट्रोक हो गया, साथ ही उन्हें गुर्दे की जटिलताएँ और निमोनिया भी हो गया। 11 जुलाई 2001 को लाहौर, पाकिस्तान में उनका निधन हो गया। उनके सम्मान में लाहौर की जिस गली में वे रहते थे, उसे "क़तील शिफ़ाई स्ट्रीट" नाम दिया गया। इसके अलावा, हरिपुर शहर के एक सेक्टर का नाम "मोहल्ला क़तील शिफ़ाई" रखा गया।
फिल्मोग्राफी
क़तील शिफ़ाई के योगदान में कई फिल्में शामिल हैं
बड़े दिलवाला (1999)
ये है मुंबई मेरी जान (1999)
औज़ार (1997)
नाजायज़ (1995)
सर (1993)
फिर तेरी कहानी याद आई (1993)
तहकीकात (1993)
पेंटर बाबू (1983)
शीरीन फरहाद (1975)
नैला (1965)
इंतजार (1956)
गुमनाम (1954)
गुलनार (1953)
तेरी याद (1948)
क़तील शिफ़ाई की विरासत एक कवि और गीतकार के रूप में प्रभावशाली बनी हुई है, और उनकी साहित्यिक और फिल्मी संगीत में योगदान को आज भी सराहा जाता है।ये भी पढ़ें
FAQ'S
Q=1:
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Q-3: Qateel shifai in Hindi
Ans: You are reading Qateel Shifayi in Hindi biography and shayari.
क़तील शिफ़ाई की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में
1-ग़ज़ल
अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को
मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को
मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन
मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को
तर्क ए उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम
तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को
मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मानी
ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझ को
मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता ज़न भी
कोई भी नाम मेरा ले के बुला ले मुझ को
तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी
ख़ुद परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को
बाँध कर संग ए वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब
कौन ऐसा है जो अब ढूँढ निकाले मुझ को
ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन
कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को
मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे
तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को
कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ
जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझ को
बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील'
शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को
2-ग़ज़ल
अपने होंटों पर सजाना चाहता हूँ
आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ
कोई आँसू तेरे दामन पर गिरा कर
बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ
थक गया मैं करते करते याद तुझ को
अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ
छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा
रौशनी को, घर जलाना चाहता हूँ
आख़री हिचकी तेरे ज़ानू पे आए
मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ
3-ग़ज़ल
तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं
किस को ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं
सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं
टूट गया जब दिल तो फिर ये साँस का नग़्मा क्या मानी
गूँज रही है क्यूँ शहनाई जब कोई बारात नहीं
ग़म के अँधियारे में तुझ को अपना साथी क्यूँ समझूँ
तू फिर तू है मेरा तो साया भी मेरे साथ नहीं
माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है
लेकिन मुझ को ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं
ख़त्म हुआ मेरा फ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो
जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं
मेरे ग़मगीं होने पर अहबाब हैं यूँ हैरान 'क़तील'
जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं
4-नज़्म
ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में
जो मैं ने तुझ से बिछड़ के लिक्खीं
उन्हें कोई छापता नहीं है
मैं जब भी तेरे फ़िराक़ का नौहा लिख के लाऊँ
सुख़न शनासों को मेरा तर्ज़ ए अमल न भाए
तेरी मोहब्बत का दर्द हो जिस ग़ज़ल में शामिल
किसी को ऐसी ग़ज़ल न भाए
जवाब आए
कि जाने वालों को याद करने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है
मैं तेरी यादों को गूँध कर अपनी हसरतों में
तराशता हूँ अगर तिरा दिल नवाज़ पैकर
वो लोग देते हैं मुझ को बुत परस्ती का ताना
जुड़े हैं जिन के दिलों में पत्थर
वही सनम गर
करें नसीहत बुतों पे मरने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है
मैं ज़िक्र करता हूँ जब वस्ल की रुतों का
तो शहर के सारे पारसा मुझ को टोकते हैं
ख़िलाफ़ ए अख़्लाक़ जिन के नज़दीक है मोहब्बत
वफ़ाओं से मुझ को रोकते हैं
कचोटते हैं
कि अपनी इज़्ज़त पे नाम धरने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है
अगर कभी मैं जुदाइयों का सबब बताऊँ
तो मेरी नज़्मों से ख़ौफ़ खाने लगें जरीदे
समाज पर एहतिजाज करने का हक़ जो मांगों
कोई ये कह कर ज़बान सी दे
लिखो क़सीदे
कि ख़ुद को यूँ बे लगाम करने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है
इसी लिए तो हबीब मेरे
ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में
जो मैं ने तुझ से बिछड़ के लिखीं
उन्हें कोई छापता नहीं है
5-नज़्म
मैं ने चाहा था उसे रूह की राहत के लिए
आज वो जान का आज़ार बनी बैठी है
मेरी आँखों ने जिसे फूल से नाज़ुक समझा
अब वो चलती हुई तलवार बनी बैठी है
हम सफ़र बन के जिसे नाज़ था हमराही पर
रहज़नों की वो तरफ़ दार बनी बैठी है
किसी अफ़्साने का किरदार बनी बैठी है
उस की मासूमियत ए दिल पे भरोसा था मुझे
अज़्म ए सीता की क़सम इस्मत ए मर्यम की क़सम
याद हैं उस के वो हँसते हुए आँसू मुझ को
ख़ंदा ए गुल की क़सम गिर्या ए शबनम की क़सम
उस ने जो कुछ भी कहा मैं ने वही मान लिया
हुक्म ए हव्वा की क़सम जज़्बा ए आदम की क़सम
पाक थी रूह मिरी चश्मा ए ज़मज़म की क़सम
मैं ने चाहा था उसे दिल में छुपा लूँ ऐसे
जिस्म में जैसे लहू सीप में जैसे मोती
उम्र भर मैं न झपकता कभी अपनी आँखें
मेरे ज़ानूँ पे वो सर रख के हमेशा सोती
शम्ए -यक शब तो समझता है उसे एक जहाँ
काश हो जाती वो मेरे लिए जीवन ज्योति
दर ब दर उस की तमाज़त न परेशाँ होती
मैं उसे ले के बहुत दूर निकल जाऊँ मगर
वो मिरी राह में दीवार बनी बैठी है
ज़िंदगी भर की परस्तिश उसे मंज़ूर नहीं
वो तो लम्हों की परस्तार बनी बैठी है
मैं ने चाहा था उसे रूह की राहत के लिए
वो मगर जान का आज़ार बनी बैठी है
किसी अफ़्साने का किरदार बनी बैठी है
Conclusion:-
क़तील शिफ़ाई एक बेहद कामयाब शायर और गीतकार थे। उनके लिखने के अंदाज और जज़बाती कलाम ने उर्दू अदब को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी शायरी और गीतों ने न केवल उन्हें हिंदुस्तान और पाकिस्तान में मशहूर किया, बल्कि दुनिया भर में उनका नाम रौशन किया। उनकी ग़ज़लें और नज़्में आज भी लोगों के दिलों में ज़िंदा हैं, और उर्दू अदब (साहित्य ) में उनका योगदान हमेशा याद किया जाएगा।ये भी पढ़ें