Qateel Shifayi Poet:उर्दू शायरी का अज़ीम फ़नकार,क़तील शिफ़ाई की ज़िन्दगी, शायरी, फ़िल्मी सफ़र और अदबी विरासत

मोहम्मद औरंगज़ेब, जो अदबी दुनिया में “क़तील शिफ़ाई” के नाम से मशहूर हुए, 24 दिसंबर 1919 को हरिपुर (हज़ारा डिवीज़न) — उस वक़्त के हिन्दुस्तान और आज के पाकिस्तान — में पैदा हुए। सन 1938 में उन्होंने “क़तील शिफ़ाई” को अपना तख़ल्लुस इख़्तियार किया। इस तख़ल्लुस में “क़तील” उनका ख़ास पहचान बन गया और “शिफ़ाई” उनके उस्ताद हकीम मोहम्मद शिफ़ा ख़ानपुरी की अज़ीम शख़्सियत को ख़िराज-ए-अक़ीदत के तौर पर शामिल किया गया।


प्रारंभिक जीवन और करियर

1935 में अपने पिता की अकाल मृत्यु के बाद, क़तील को अपनी शिक्षा छोड़नी पड़ी और विभिन्न नौकरियों से खुद का सहारा बनाना पड़ा। उन्होंने सबसे पहले खेल का सामान बेचने की दुकान शुरू की, लेकिन यह व्यवसाय असफल रहा। इसके बाद वे रावलपिंडी चले गए, जहां उन्होंने एक परिवहन कंपनी में काम किया और लगभग 60 रुपये प्रति माह कमाए।

आग़ाज़-ए-ज़िन्दगी और पेशावर सफ़र

सन 1935 में जब क़तील शिफ़ाई के वालिद-ए-मोहतरम इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत हुए, उस वक़्त वह अभी नौजवानी की दहलीज़ पर क़दम रख ही रहे थे। वालिद की अकाल मौत ने न सिर्फ़ उनके घर का सहारा छीन लिया, बल्कि उनकी तालीमी ज़िन्दगी का सिलसिला भी मुनक़ते कर दिया। हालात ने मजबूर किया कि वह अपनी पढ़ाई को अधूरा छोड़कर ज़िन्दगी के सख़्त इम्तिहानों का सामना करें।

रोज़गार की तलाश में उन्होंने पहले-पहल खेल-कूद के सामान की एक छोटी सी दुकान खोली, इस उम्मीद में कि शायद कारोबार से घर की माली हालत संभल जाएगी। मगर तक़दीर को कुछ और ही मंज़ूर था — यह कारोबार ज़्यादा देर चल न सका और उन्हें भारी नुक़सान का सामना करना पड़ा।

नाउमीदी के उस दौर में भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। हालात से जंग जारी रखते हुए वह रावलपिंडी चले गए, जहाँ उन्होंने एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में मामूली मुलाज़िमत इख़्तियार की। वहां वह तक़रीबन साठ रुपये माहाना तनख़्वाह पर काम करने लगे। यही वह दौर था जब क़तील शिफ़ाई ने ज़िन्दगी के असल मायने समझे — मेहनत, सब्र और ख़ुद एतिमादी। इन्हीं सख़्त हालात ने उनके अंदर वह दर्द, एहसास और जज़्बा पैदा किया, जो आगे चलकर उनकी शायरी का असल रंग बना और जिसने उन्हें उर्दू अदब का एक रोशन सितारा बना दिया।

अदबी ख़िदमात और लाज़वाल विरासत

क़तील शिफ़ाई का नाम उर्दू अदब और फ़िल्मी शायरी के इतिहास में एक ऐसे फ़नकार के तौर पर लिया जाता है, जिसने ग़ज़ल को सिनेमा की दुनिया में एक नया मक़ाम अता किया। उन्होंने उस राह को और भी निखारा, जिसे साहिर लुधियानवी जैसे अज़ीम शायर ने हमवार किया था। क़तील शिफ़ाई ने सादा, असरअंगेज़ और दिल को छू लेने वाली ज़बान में अपने जज़्बात का इज़हार किया। उनकी शायरी में वो मिठास थी जो आम आदमी के दिल तक पहुँचती थी। उन्होंने उर्दू शायरी को आम अवाम की ज़बान बना दिया — जहाँ हर लफ़्ज़ में एहसास था, हर मतला में कहानी और हर मक़ता में दास्तान।

क़तील शिफ़ाई ने न सिर्फ़ शायरी की दुनिया में बल्कि फ़िल्मी अदब में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी। उन्होंने 1970 में अपनी मातृभाषा हिंदी में पहली फ़िल्म "क़िस्सा ख्वानी" तख़्लीक की, जो 1980 में रिलीज़ हुई। यह सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं थी बल्कि एक अदबी तजुर्बे का बयान थी, जिसमें इंसानी जज़्बात, मोहब्बत और दर्द को बेमिसाल शायरी के ज़रिए पेश किया गया।


अपने तख़्लीकी सफ़र में क़तील शिफ़ाई ने 20 से ज़्यादा शायरी के मज़मूए (काव्य संग्रह) दुनिया के सामने पेश किए और पाकिस्तानी व भारतीय फ़िल्मों के लिए तक़रीबन ढाई हज़ार नग़्मे लिखे — हर गीत में उनकी शायरी की ख़ुशबू और रूहानी अहसास बख़ूबी झलकता है। उनकी शायरी का हिंदी, गुजराती, अंग्रेज़ी, रूसी और चीनी जैसी कई ज़बानों में तर्जुमा किया गया, जिससे उनका कलाम सरहदों की क़ैद से निकलकर आलमी शोहरत का हक़दार बना।

जगजीत सिंह, चित्रा सिंह और ग़ुलाम अली जैसे मुमताज़ गायकों ने उनकी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ से ज़िन्दा-जावेद बना दिया। उनकी शायरी सिर्फ़ महफ़िलों तक सीमित न रही, बल्कि दिलों में उतर जाने वाली तर्ज़ और अल्फ़ाज़ की मिसाल बन गई।

आज भी पाकिस्तान और भारत के कई जामिआत (यूनिवर्सिटियों) में उनकी शायरी को मास्टर डिग्री के निसाब (सिलेबस) में शामिल किया गया है — जो उनके अदबी क़द्र-ओ-मक़ाम और उनके तख़्लीकी असर की गहराई का इज़हार करता है। क़तील शिफ़ाई की विरासत महज़ शायरी नहीं, बल्कि वो रूहानी विरासत है जो इश्क़, इंसानियत और हुस्न-ए-अंदाज़ की तालीम देती है।

एहतराम-ए-फ़न और अज़ीम इज़्ज़तें

क़तील शिफ़ाई की अदबी और फ़नकाराना ख़िदमात को सिर्फ़ अवाम ही नहीं, बल्कि मुक़्तलिफ़ हुकूमतों और अदबी इदारों ने भी बेपनाह एहतराम के साथ सराहा। उनका नाम उन चंद फ़नकारों में शुमार होता है जिन्हें दो मुल्कों — पाकिस्तान और हिंदुस्तान — दोनों की सरज़मीन पर बराबर मोहब्बत और इज़्ज़त हासिल हुई।

उनकी शायरी ने जिस तरह दिलों को छुआ, उसी तरह उन्हें इज़्ज़त-ओ-अवार्ड्स के बेहतरीन मक़ाम से भी नवाज़ा गया। सन 1964 में उन्हें आदमजी अदबी एवार्ड से सरफ़राज़ किया गया — जो उर्दू अदब की दुनिया में एक बेहद बड़ा एज़ाज़ समझा जाता है। इसके बाद उन्हें नक़ूश एवार्ड और अब्बासिन आर्ट्स काउंसिल एवार्ड से भी नवाज़ा गया, जो उनके फ़न की गहराई और उनके असर की दलीलें हैं।

भारत की सरज़मीन ने भी क़तील शिफ़ाई के अदबी क़द्र को महसूस किया और उन्हें अमीर ख़ुसरो एवार्ड से इज़्ज़त बख़्शी — जो हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अदबी रिश्तों की एक खूबसूरत मिसाल बन गया।

उनकी ज़िन्दगी की ख़िदमात का सबसे बड़ा एज़ाज़ तब मिला जब पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें सन 1994 में “प्राइड ऑफ़ परफॉर्मेंस एवार्ड” से नवाज़ा — ये इनाम उन चंद अज़ीम शायरों और अदबी हस्तियों को मिलता है जिन्होंने अपने फ़न से मुल्क की पहचान को नई बुलंदियों तक पहुँचाया।

और आख़िर में, सन 1999 में उन्हें स्पेशल मिलेनियम निगार एवार्ड से मुरत्तब किया गया, जो पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री में उनके आजीवन फ़नकाराना सफ़र और लाज़वाल तख़्लीक़ात का एतिराफ़ था।

क़तील शिफ़ाई की शख़्सियत और उनके अवार्ड्स, दोनों ही इस बात की गवाही देते हैं कि असल फ़न कभी फ़ना नहीं होता — वह वक़्त की हदों से निकलकर हमेशा क़ौम की रूह और अदब की विरासत में ज़िन्दा रहता है।

फ़िल्मी सफ़र और संगीत की विरासत

क़तील शिफ़ाई का फ़न सिर्फ़ अदब की दुनिया तक महदूद नहीं रहा, बल्कि उन्होंने फ़िल्मी जहान में भी अपने लफ़्ज़ों का ऐसा जादू बिखेरा कि उनकी ग़ज़लें और नग़्मे आज भी दिलों में बसते हैं। उनकी तख़्लीक़ात ने फ़िल्मी शायरी को एक नया रुख़ दिया — जहाँ जज़्बात, तसव्वुर और इंसानियत का हुस्न एक साथ झलकता है।

उनकी क़लम से निकले नग़्मों ने न सिर्फ़ पर्दे पर किरदारों को जान बख़्शी, बल्कि सुनने वालों के दिलों में मोहब्बत और एहसास का उजाला भर दिया। यही वजह है कि उनका नाम भारतीय और पाकिस्तानी फ़िल्मी अदब में हमेशा एक रोशन सितारे की तरह चमकता रहेगा।

क़तील शिफ़ाई के तख़्लीकी सफ़र में दर्ज हैं वो फ़िल्में, जो उनकी फ़नकाराना ज़हानत और शायरी की बुलंदी की गवाही देती हैं —

  • तेरी याद (1948)

  • गुलनार (1953)

  • गुमनाम (1954)

  • इंतज़ार (1956)

  • नैला (1965)

  • शीरीन फरहाद (1975)

  • पेंटर बाबू (1983)

  • तहक़ीक़ात (1993)

  • फिर तेरी कहानी याद आई (1993)

  • सर (1993)

  • नाजायज़ (1995)

  • औज़ार (1997)

  • ये है मुंबई मेरी जान (1999)

  • बड़े दिलवाला (1999)

हर फ़िल्म में उनका लिखा हुआ एक-एक गीत इश्क़, जुदाई, उम्मीद और इंसानी जज़्बातों की तर्जुमानी करता है। उनकी शायरी में वह तासीर थी जो सुनने वाले को अपने दिल की गहराइयों में ले जाती थी — यही उनकी क़लम की असल रूह थी।

क़तील शिफ़ाई की शख़्सियत सिर्फ़ एक शायर या गीतकार की नहीं, बल्कि एक ऐसे रूहानी फ़नकार की थी जिसने शब-ओ-रोज़ की सख़्त ज़िन्दगी को लफ़्ज़ों की मिठास और नग़्मों की रूह से महका दिया। आज भी जब उनके लिखे गीत बजते हैं, तो यूँ महसूस होता है जैसे उनकी रूह अब भी संगीत के ज़रिए साँस ले रही हो।

उनकी विरासत — अदब, शायरी और फ़िल्मी नग़्मों की — आज भी उतनी ही ज़िंदा है जितनी उनके ज़माने में थी। क़तील शिफ़ाई का नाम हमेशा उन फ़नकारों में रहेगा जिन्होंने उर्दू शायरी को पर्दे पर अमर कर दिया और अपने लफ़्ज़ों से मोहब्बत का एक सदाबहार तराना लिख दिया।

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वफ़ात और यादगार

ज़िन्दगी के हर मोड़ पर अपने लफ़्ज़ों से दिलों को रौशन करने वाले क़तील शिफ़ाई की ज़िन्दगी का आख़िरी बाब 2001 में एक दर्दनाक मोड़ पर पहुँचा। उसी साल उन्हें लक़वा (पक्षाघात) और दमाग़ी फ़ालिज़ (स्ट्रोक) का शिकार होना पड़ा। इसके साथ ही गुर्दों की ख़राबी और निमोनिया जैसी बीमारियों ने उनके नाज़ुक जिस्म को बुरी तरह कमज़ोर कर दिया। तमाम तिब्बी कोशिशों के बावजूद, यह अज़ीम शायर 11 जुलाई 2001 को लाहौर (पाकिस्तान) में इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कह गया।

क़तील शिफ़ाई की वफ़ात ने उर्दू अदब को एक गहरा सदमा पहुँचाया — वह शायर जो ज़िन्दगी के हर दर्द को शायरी की खूबसूरती में ढाल देता था, अब ख़ामोशी की चादर ओढ़ चुका था। मगर सच यह है कि अस्ल शायर कभी मरते नहीं, वो अपने लफ़्ज़ों के ज़रिए सदियों तक ज़िन्दा रहते हैं।

उनकी याद में लाहौर की उस गली, जहाँ वह बरसों रहे और जहाँ से उनकी शायरी की ख़ुशबू फैलती रही, को "क़तील शिफ़ाई स्ट्रीट" का नाम दिया गया — ताकि हर गुज़रने वाला उस गली से गुज़रते वक़्त एक शायर की रूह को महसूस कर सके।

इसी तरह उनके वतन हरिपुर में भी उनकी याद को अमर बनाने के लिए एक इलाक़े को "मोहल्ला क़तील शिफ़ाई" का नाम दिया गया। यह सिर्फ़ एक नाम नहीं, बल्कि एक रूहानी निशानी है — उस शायर की जिसने मोहब्बत, इंसानियत और एहसास को अपनी शायरी का पैग़ाम बनाया।

आज भी जब हवाएँ लाहौर या हरिपुर की गलियों से गुज़रती हैं, तो ऐसा महसूस होता है जैसे क़तील शिफ़ाई के अशआर अब भी वहीं कहीं गूंज रहे हों

क़तील शिफ़ाई की शायरी,ग़ज़लें,नज़्में 

1-ग़ज़ल 

अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझ को 

मैं हूँ तेरा तू नसीब अपना बना ले मुझ को 

मैं जो काँटा हूँ तो चल मुझ से बचा कर दामन 

मैं हूँ गर फूल तो जूड़े में सजा ले मुझ को 

तर्क ए उल्फ़त की क़सम भी कोई होती है क़सम 

तू कभी याद तो कर भूलने वाले मुझ को 

मुझ से तू पूछने आया है वफ़ा के मानी 

ये तेरी सादा दिली मार न डाले मुझ को 

मैं समुंदर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोता ज़न भी 

कोई भी नाम मेरा ले के बुला ले मुझ को 

तू ने देखा नहीं आईने से आगे कुछ भी 

ख़ुद परस्ती में कहीं तू न गँवा ले मुझ को 

बाँध कर संग ए वफ़ा कर दिया तू ने ग़र्क़ाब 

कौन ऐसा है जो अब ढूँढ निकाले मुझ को 

ख़ुद को मैं बाँट न डालूँ कहीं दामन दामन 

कर दिया तू ने अगर मेरे हवाले मुझ को 

मैं खुले दर के किसी घर का हूँ सामाँ प्यारे 

तू दबे पाँव कभी आ के चुरा ले मुझ को 

कल की बात और है मैं अब सा रहूँ या न रहूँ 

जितना जी चाहे तेरा आज सता ले मुझ को 

बादा फिर बादा है मैं ज़हर भी पी जाऊँ 'क़तील' 

शर्त ये है कोई बाँहों में सँभाले मुझ को 

2-ग़ज़ल 

अपने होंटों पर सजाना चाहता हूँ 

आ तुझे मैं गुनगुनाना चाहता हूँ 

कोई आँसू तेरे दामन पर गिरा कर 

बूँद को मोती बनाना चाहता हूँ 

थक गया मैं करते करते याद तुझ को 

अब तुझे मैं याद आना चाहता हूँ 

छा रहा है सारी बस्ती में अँधेरा 

रौशनी को, घर जलाना चाहता हूँ 

आख़री हिचकी तेरे ज़ानू पे आए 

मौत भी मैं शायराना चाहता हूँ 

3-ग़ज़ल 

तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं 

एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं 

किस को ख़बर थी साँवले बादल बिन बरसे उड़ जाते हैं 

सावन आया लेकिन अपनी क़िस्मत में बरसात नहीं 

टूट गया जब दिल तो फिर ये साँस का नग़्मा क्या मानी 

गूँज रही है क्यूँ शहनाई जब कोई बारात नहीं 

ग़म के अँधियारे में तुझ को अपना साथी क्यूँ समझूँ 

तू फिर तू है मेरा तो साया भी मेरे साथ नहीं 

माना जीवन में औरत इक बार मोहब्बत करती है 

लेकिन मुझ को ये तो बता दे क्या तू औरत ज़ात नहीं 

ख़त्म हुआ मेरा फ़साना अब ये आँसू पोंछ भी लो 

जिस में कोई तारा चमके आज की रात वो रात नहीं 

मेरे ग़मगीं होने पर अहबाब हैं यूँ हैरान 'क़तील' 

जैसे मैं पत्थर हूँ मेरे सीने में जज़्बात नहीं 

4-नज़्म 

ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में 

जो मैं ने तुझ से बिछड़ के लिक्खीं 

उन्हें कोई छापता नहीं है 

मैं जब भी तेरे फ़िराक़ का नौहा लिख के लाऊँ 

सुख़न शनासों को मेरा तर्ज़ ए अमल न भाए 

तेरी मोहब्बत का दर्द हो जिस ग़ज़ल में शामिल 

किसी को ऐसी ग़ज़ल न भाए 

जवाब आए 

कि जाने वालों को याद करने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है 

मैं तेरी यादों को गूँध कर अपनी हसरतों में 

तराशता हूँ अगर तिरा दिल नवाज़ पैकर 

वो लोग देते हैं मुझ को बुत परस्ती का ताना 

जुड़े हैं जिन के दिलों में पत्थर 

वही सनम गर 

करें नसीहत बुतों पे मरने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है 

मैं ज़िक्र करता हूँ जब वस्ल की रुतों का 

तो शहर के सारे पारसा मुझ को टोकते हैं 

ख़िलाफ़ ए अख़्लाक़ जिन के नज़दीक है मोहब्बत 

वफ़ाओं से मुझ को रोकते हैं 

कचोटते हैं 

कि अपनी इज़्ज़त पे नाम धरने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है 

अगर कभी मैं जुदाइयों का सबब बताऊँ 

तो मेरी नज़्मों से ख़ौफ़ खाने लगें जरीदे 

समाज पर एहतिजाज करने का हक़ जो मांगों 

कोई ये कह कर ज़बान सी दे 

लिखो क़सीदे 

कि ख़ुद को यूँ बे लगाम करने से कोई भी फ़ाएदा नहीं है 

इसी लिए तो हबीब मेरे 

ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में 

जो मैं ने तुझ से बिछड़ के लिखीं 

उन्हें कोई छापता नहीं है 

5-नज़्म 

मैं ने चाहा था उसे रूह की राहत के लिए 

आज वो जान का आज़ार बनी बैठी है 

मेरी आँखों ने जिसे फूल से नाज़ुक समझा 

अब वो चलती हुई तलवार बनी बैठी है 

हम सफ़र बन के जिसे नाज़ था हमराही पर 

रहज़नों की वो तरफ़ दार बनी बैठी है 

किसी अफ़्साने का किरदार बनी बैठी है 

उस की मासूमियत ए दिल पे भरोसा था मुझे 

अज़्म ए सीता की क़सम इस्मत ए मर्यम की क़सम 

याद हैं उस के वो हँसते हुए आँसू मुझ को 

ख़ंदा ए गुल की क़सम गिर्या ए शबनम की क़सम 

उस ने जो कुछ भी कहा मैं ने वही मान लिया 

हुक्म ए हव्वा की क़सम जज़्बा ए आदम की क़सम 

पाक थी रूह मिरी चश्मा ए ज़मज़म की क़सम 

मैं ने चाहा था उसे दिल में छुपा लूँ ऐसे 

जिस्म में जैसे लहू सीप में जैसे मोती 

उम्र भर मैं न झपकता कभी अपनी आँखें 

मेरे ज़ानूँ पे वो सर रख के हमेशा सोती 

शम्ए -यक शब तो समझता है उसे एक जहाँ 

काश हो जाती वो मेरे लिए जीवन ज्योति 

दर ब दर उस की तमाज़त न परेशाँ होती 

मैं उसे ले के बहुत दूर निकल जाऊँ मगर 

वो मिरी राह में दीवार बनी बैठी है 

ज़िंदगी भर की परस्तिश उसे मंज़ूर नहीं 

वो तो लम्हों की परस्तार बनी बैठी है 

मैं ने चाहा था उसे रूह की राहत के लिए 

वो मगर जान का आज़ार बनी बैठी है 

किसी अफ़्साने का किरदार बनी बैठी है 

ZZZ

तब्सरा 


क़तील शिफ़ाई का नाम जब भी उर्दू शायरी के ज़िक्र में लिया जाता है, तो यह सिर्फ़ एक शायर का नाम नहीं रह जाता, बल्कि एक ऐसे फ़नकार का दस्तख़त  बन जाता है जिसने अपने लफ़्ज़ों के ज़रिए दर्द, मोहब्बत और इंसानियत को अमर कर दिया। उनकी शायरी सिर्फ़ महफ़िलों में सराही नहीं गई, बल्कि आम आदमी के दिल तक भी पहुँच गई — और यही वह खूबी है जो महान शायरों को बाक़ी से अलग करती है।

उनकी ज़िन्दगी, उनके तज़ुर्बात और उनके लफ़्ज़, तीनों एक-दूसरे के पूरक थे। पिता की अकाल मौत, बचपन की तंगी और नाउमीदी के बावजूद क़तील शिफ़ाई ने कभी उम्मीद का हाथ नहीं छोड़ा। इन्हीं कठिन हालातों ने उनकी रूह को तराशा, दिल में गहराई डाली, और अंततः उनकी शायरी में वही मिठास और असर पैदा हुआ, जो आज भी सुनने वालों को हैरान और मदहोश कर देता है।

क़तील शिफ़ाई की शायरी में سادगी और गहराई का ऐसा संगम है जो किसी भी शायर में आसानी से नहीं मिलता। उनके अल्फ़ाज़ केवल अर्थ नहीं रखते, बल्कि जज़्बात का एहसास कराते हैं। हर मतला, हर मक़ता और हर नग़्मा इंसान के अंदर की हलचल को पकड़ता है। यही वजह है कि उनकी शायरी ने सिनेमा की दुनिया में भी अलग मुक़ाम हासिल किया।

उनकी फ़िल्मी ग़ज़लों की ख़ासियत यह थी कि वे कहानी और जज़्बात का मिश्रण थीं। जब जगजीत सिंह की आवाज़ में उनके अशआर गूंजते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे हर लफ़्ज़ में उनका दर्द, उनकी मोहब्बत और उनकी ज़िन्दगी की कड़वाहट समा गई हो। चित्रा सिंह और गुलाम अली जैसे मुमताज़ गायकों ने उनके ग़ज़लों को अमर कर दिया — और यह साबित कर दिया कि असली शायर कभी नहीं मरता, उसकी रूह उसके लफ़्ज़ों में ज़िंदा रहती है।

क़तील शिफ़ाई का तख़ल्लुस ही उनके फ़न का आईना था — "क़तील" दर्द और तन्हाई की तासीर का प्रतीक, और "शिफ़ाई" उनके उस्ताद की आदब और इज़्ज़त का नाम। उनकी शायरी में जो मिठास और असर है, वह केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि ज़िन्दगी की सच्चाई और इंसानी एहसास की तर्ज़ुमानी है।

आज उनके अशआर सिर्फ़ किताबों और महफ़िलों तक सीमित नहीं रहे। वे दिलों में उतर गए, ज़बानों पर गूंजते हैं और रूहों में बसते हैं। पाकिस्तान और भारत के विश्वविद्यालयों में उनकी शायरी को मास्टर डिग्री के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया — और यही उनकी असली विरासत है: एक ऐसा शायर जो आधुनिक ज़माने के लिए भी प्रेरणा और सोच का दरिया बन गया।

क़तील शिफ़ाई की शायरी, उनके नग़्मे और उनकी ज़िन्दगी का हर पहलू यह सिखाता है कि सच्चा फ़न केवल लफ़्ज़ों का खेल नहीं, बल्कि इंसानियत, दर्द और मोहब्बत की तालीम देने वाला जादू है। उनकी शायरी में आज भी वही आवाज़ और तासीर है जो सुनने वाले के दिल को झकझोर देती है और रूह तक उतर जाती है।ये भी पढ़ें 







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