तआरुफ़
शायरी सिर्फ़ अल्फ़ाज़ का खेल नहीं, बल्कि यह एक अहसास है, जो दिल की गहराइयों से निकलकर काग़ज़ पर नक़्श बन जाता है। यह मोहब्बत की ज़बान है, बग़ावत की सदा है, दर्द की तर्जुमानी है, और ख़्वाबों की ताबीर भी। बर्र-ए-सग़ीर में शायरी की रवायत सदियों पुरानी है। हिंदुस्तान और पाकिस्तान की शायरी ने अदब, समाज और सियासत को मालामाल किया है। इस मक़ाले में हम शायरी की तारीख़, उसके मुख़्तलिफ़ अदवार, नामवर शायरों और उनके बेनज़ीर कलाम का तफ्सीली जायज़ा लेंगे।
1. हिंदुस्तान और पाकिस्तान में शायरी का तारीखी पस-ए-मंज़र
मुग़ल दौर से पहले
शायरी की जड़ें इस सरज़मीन में बहुत गहरी हैं। जब अल्फ़ाज़ ने एहसास का पैरहन पहना, तो अमीर ख़ुसरो ने हिंदी और फ़ारसी के संगम से ग़ज़लों और कव्वालियों को तख़लीक़ किया। उनकी शायरी में इश्क़ भी था, इबादत भी।
मुग़ल दौर और फ़ारसी का उरूज
मुग़ल सल्तनत के दौर में फ़ारसी ज़बान का बोलबाला रहा। शाहजहाँ और औरंगज़ेब के अहद में मीर तक़ी मीर, सौदा और नज़ीर अकबराबादी जैसे अज़ीम शायरों ने अपनी शायरी से दुनिया को हैरान कर दिया। मीर की ग़ज़लों में सोज़ और सौदा की शायरी में फ़न का जलवा नज़र आता है।
ब्रिटिश दौर और शायरी की नई बयार
1857 की बग़ावत ने हिंदुस्तान की तक़दीर बदली, तो शायरी ने भी एक नया रंग अख़्तियार किया। अब शायरी सिर्फ़ हुस्न और इश्क़ तक महदूद नहीं रही, बल्कि इसमें समाजी दर्द और सियासी आग भी झलकने लगी। ग़ालिब की हसरतें, इक़बाल का ख़ुदी का पैग़ाम और अकबर इलाहाबादी की तंकीद, इस दौर की शायरी के अहम पहलू बने।
हिंदुस्तान-पाकिस्तान तक़सीम और शायरी
1947 का बंटवारा सिर्फ़ सरज़मीन की तक़सीम नहीं था, बल्के दिलों का भी बंटवारा था। इस दर्द को शायरों ने अपने अल्फ़ाज़ में ढाल दिया। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, साहिर लुधियानवी, जॉन एलिया, गुलज़ार और अहमद फ़राज़ जैसे शायरों ने हिज्रत और जुदाई के एहसास को अपने अशआर में बख़ूबी समेटा।
2. नामवर शायर और उनके नायाब अशआर
मिर्ज़ा ग़ालिब (1797-1869)
ग़ालिब की शायरी में फ़लसफ़ा, मोहब्बत और ज़िंदगी का गहरा मुतालआ मिलता है। उनका हर शेर एक नया मायने रखता है। मशहूर शेर:
"हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले"
अल्लामा इक़बाल (1877-1938)
इक़बाल की शायरी इश्क़ से आगे बढ़कर एक इंक़लाबी पैग़ाम देती है। उनकी शायरी में क़ौमी शऊर और इंसानी वक़ार का जश्न मनाया गया है। मशहूर शेर:
"ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले,
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।"
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (1911-1984)
फ़ैज़ की शायरी इश्क़ और इंक़लाब का संगम है। उनकी ग़ज़लें मोहब्बत के एहसास और समाजी इंसाफ़ की आवाज़ बनीं। मशहूर शेर: "हम देखेंगे, लाज़िम है कि हम भी देखेंगे।"
साहिर लुधियानवी (1921-1980)
साहिर की शायरी मोहब्बत और समाजी बग़ावत का बेहतरीन संगम है। उन्होंने शायरी के ज़रिए समाज की सच्चाइयों को उजागर किया। मशहूर शेर:
"मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया
हर फ़िक्र को धुएँ में उड़ाता चला गया"
गुलज़ार की शायरी में नज़ाकत, एहसास और गहराई का अनोखा मेल है। मशहूर शेर:
"तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं,
तेरे बिना ज़िंदगी भी लेकिन ज़िंदगी नहीं।"
3. हिंदुस्तान और पाकिस्तान की शायरी: इत्तेहाद और इख़्तिलाफ़
इत्तेहाद
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दोनों मुल्कों में उर्दू शायरी की गहरी रवायत है।
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मोहब्बत, दर्द, समाजी मसाइल और इंक़लाब शायरी के आम मौज़ू हैं।
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ग़ज़ल, नज़्म और रुबाई हर जगह मक़बूल हैं।
इख़्तिलाफ़
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पाकिस्तान की शायरी में मज़हबी शऊर गहरा है, जबकि हिंदुस्तान में सेक्युलर तास्सुर ज़्यादा है।
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हिंदुस्तानी शायरी में हिंदी और उर्दू का संगम है, जबकि पाकिस्तान में फ़ारसी-नफ़्स उर्दू का ज़्यादा असर है।
4. मौसिर दौर में शायरी का असर
आज शायरी किताबों तक महदूद नहीं रही, बल्कि सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म ने इसे नए रंग दिए हैं। राहत इंदौरी, मुनव्वर राणा और कुमार विश्वास ने इसे नई बुलंदियों तक पहुँचाया।
नतीजा:-
शायरी हमारी तहज़ीब और तारीख़ का हिस्सा है। चाहे ग़ालिब की रूमानियत हो या फ़ैज़ का इंक़लाब, यह कलाम हमेशा दिलों में ज़िंदा रहेंगे।
यह अदब और तहज़ीब की वह रौशनी है, जिसने हिंदुस्तान और पाकिस्तान में सदियों से दिलों को रौशन किया है। अमीर ख़ुसरो से लेकर राहत इंदौरी तक, हर दौर की शायरी ने अपने ज़माने की हकीकत को बयां किया है।
मुग़ल सल्तनत से लेकर ब्रिटिश राज और फिर तक़सीम-ए-हिंद तक, शायरी ने इश्क़ के रंगों से लेकर सियासी हक़ीक़तों तक को अपने लफ़्ज़ों में पिरोया। ग़ालिब की गहरी सोच, इक़बाल का ख़ुदी का पैग़ाम, फ़ैज़ की इंक़लाबी सदा और साहिर की तल्ख़ हक़ीक़तें, सबने शायरी को एक नई जान बख़्शी।
आज डिजिटल दौर में भी शायरी की अहमियत कम नहीं हुई, बल्कि सोशल मीडिया ने इसे नए आयाम दिए हैं। यह सिर्फ़ एक लफ़्ज़ी इज़हार नहीं, बल्कि हमारी तहज़ीब और तारीख़ की पहचान है। चाहे इश्क़ हो या इंक़लाब, दर्द हो या उम्मीद—शायरी हमेशा जिंदा रहेगी, क्यूंकि यह सिर्फ़ सियाही से नहीं, बल्कि जज़्बात से लिखी जाती है।
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